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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६७ प्रकरणम्] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली ग्राहकत्वमेव विषयित्वम्, तयोः प्रतिनियमे एव कारणे पृष्टे तदेवोत्तरमुच्यत इति सर्वोत्तरधियां परिस्फुरति । नियतार्थावग्राहितापि ज्ञानस्य स्वभाव इति चेत् ? स पुनरस्य स्वभावो यदि निर्हेतुको नियमो न प्राप्नोति । अथ कारणवशात ? तदेवोच्यतां किं स्वभावपरिघोषणया, न च तदुत्पत्तेरन्यत् पश्यामः । अथोच्यते यदुत्पादयति सरूपयति ज्ञानम्, तदस्य ग्राह्य नेतरत् । अवश्यं चाकारो ज्ञानेऽप्येषितव्यः, अन्यथा निराकारस्य बोधमात्रस्य सर्वार्थ प्रत्यविशेषाद् नीलस्येदं पीतस्येदमिति व्यवस्थानुपपत्तौ ततोऽर्थविशेषप्रतीत्यभावात् । अत एव विषयाकारं प्रमाणमाहुः । स चासाधारणो ज्ञानमर्थविशेषेण सह घटयति, न साधारणमिन्द्रियादिकम् । तदुक्तम् अर्थेन घटयत्येनां नहि मुक्त्वार्थरूपताम् । तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥ अपरत्र चोक्तम्--नहि वित्तिसत्तैव तद्वेदना युक्ता, तस्याः सर्वत्रा. ही नहीं है। ( उ०) 'विषयविषयिभाव' से ही 'ग्राह्यग्राहकभाव' को व्यवस्था होगी। (प्र.) नहीं, क्योंकि दोनों एक ही बात है। ग्राह्यत्व और विषयत्व एक ही वस्तु है। एवं ग्राहकत्व और विषयित्व इन दोनों में भी कोई अन्तर नहीं है। इन दोनों के कारण के पूछने पर उन्हीं दोनों को उपस्थित करते हैं। इस प्रकार का उत्तर तो किसी लोको. त्तर बुद्धिवाले को ही सूझ सकता है। ( उ० ) ज्ञान का यह भी स्वभाव है कि वह किसी नियत अर्थ को ही ग्रहण करे (प्र०) थह (नियतविषयग्राहकत्व ) ज्ञान का स्वभाव तभी हो सकता है जब कि वह बिना किसी कारण के ही ज्ञान में रहे। अगर यह स्वभावनियम भी किसी कारण से ही ज्ञान में रहे तो फिर उसी का उल्लेख क्यों नहीं करते, स्वभाव की घोषणा क्यों करते हैं अगर ज्ञान की उत्पत्ति को छोड़कर ज्ञान के (विषय) नियम का और किसी को कारण ही नहीं समझते ? अगर यह कहें कि ( उ० ) जो जिस ज्ञान को उत्पन्न करती है और आकार प्रदान करती है, वही वस्तु उस ज्ञान की ग्राह्य है और कोई वस्तु नहीं। एवं ज्ञान में अर्थाकारता भी माननी ही पड़ेगी, क्योंकि ज्ञान को अगर निराकार मानें तो फिर वह सभी विषयों के प्रति समान ही होगा। इससे 'यह ज्ञान नील विषयक है, एवं वह पीत विषयक' इस व्यवस्था की उपपत्ति नहीं होगी, अत: इस पक्ष में ज्ञानविशेष से अर्थविशेष का बोध नहीं होगा। अत: विषय के आकार को ही प्रमाण कहते हैं। वह असाधारण आकार ही ज्ञान को अर्थविशेष के साथ सम्बद्ध करता है, साधारण इन्द्रियादि नहीं। जैसा कहा है कि इस अर्थरूपता ( अर्थाकारता ) को छोड़कर ज्ञान को अर्थ के साथ कोई सम्बद्ध नहीं करता है, अतः ज्ञान की प्रमेयाकारता को छोड़कर प्रमेय के यथार्थ ज्ञान का कोई दूसरा करण (प्रमाण) नहीं है। दूसरी जगह और भी कहा है कि वित्ति ( ज्ञान ) की सत्ता मात्र For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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