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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् .. २४१ प्रशस्तपादभाष्यम् संयोगविभागसङ्घयागुरुत्वद्रवत्वोष्णस्पर्शज्ञानधर्माधर्मसंस्काराः समानासमानजात्यारम्भकाः। __ संयोग, विभाग, संख्या, गुरुत्व, द्रवत्व, उष्णस्पर्श, ज्ञान, धर्म, अधर्म और संस्कार ये दश गुण अपने समानजातीय एवं असमानजातीय दोनों तरह की वस्तुओं के उत्पादक हैं। न्यायकन्दली अन्यथा तस्य प्रमोदानुपपत्तिरिति चेत् ? तदसारम्, पुत्रस्य हि मुखप्रसादादिना सुखोत्पत्तिमनुमाय पश्चात् पितरि सुखं जायते । तत्रास्य पुत्रस्य सुखं न कारणम्, तस्यैतावन्तं कालमनवस्थानात् । किन्तु लैङ्गिको तद्विषया प्रतीतिः कारणमिति प्रक्रिया। संयोगादयः संस्कारान्ताः समानासमानजात्यारम्भकाः । संयोगात् समानजातीय उत्तरसंयोगो विजातीयं द्वितूलके महत्परिमाणम्, विभागाद्विभागः शब्दश्च, कारणगतेकत्वसङ्ख्यातः कार्यत्तिन्येकत्वसङ्घया, द्वित्वबहुत्वसङ्घयाभ्यां सुखादि अपने असमानजातीय वस्तुओं के उत्पादक हैं। (जैसे कि ) सुख इच्छा का, दुःख द्वेष का, इच्छा और द्वेष ये दोनों ही प्रयत्न के, एवं प्रयत्न भी क्रिया का उत्पादक है । (प्र०) पुत्र का सुख तो पिता में ( अपने सजातीय ) सुख को उत्पन्न करता है । अगर ऐसा न हो तो फिर सुखी पुत्र को देख कर पिता का प्रफुल्लित होना युक्त नहीं होगा। (उ०) इस आक्षेप में कुछ विशेष सार नहीं है। यहाँ (पुत्र के सुख से पिता में सुख की उत्पत्ति ) की यह रीति है कि पुत्र के प्रफुल्लमुख से पिता को उसमें सुख का अनुमान होता है । इस अनुमान से पिता में दूसरे सुख की उत्पत्ति होती है । पिता के इस सुख में पुत्र का सुख ( स्वयं) कारण नहीं है, क्योंकि वह पिता में सुख की उत्पत्ति के अव्यवहितपूर्व क्षण तक (क्षणिक होने के कारण ) ठहर नहीं सकता। अतः मुखप्रफुल्लादि हेतुओं से उत्पन्न पुत्रगत सुखविषयक अनुमिति रूप प्रतीति ही पिता के प्रकृत सुख का कारण है। ___ संयोग से लेकर संस्कार पर्यन्त कथित ये नौ गुण अपने समानजातीय एवं असमानजातीय दोनों प्रकार की वस्तुओं के उत्पादक हैं। संयोग से उसके सजातीय उत्तरदेशसंयोग (संयोगजसंयोग) की उत्पत्ति होती है, एवं संयोग से ही उसके विजातीय तूल ( रुई ) के दो अवयवों से उत्पन्न होने वाले एक बड़े तूल के अवयवी के महत्परिमाण की भी उत्पत्ति होती है। विभाग से उसके सजातीय विभागजविभाग की उत्पत्ति होती है, एवं विभाग से ही उसके विजातीय शब्द की भी उत्पत्ति होती है। कारण में रहनेवाली एकत्व संख्या से कार्य में उसकी सजातीय एकत्व संख्या की उत्पत्ति होती है, एवं द्वित्वबहुत्वादि संख्याओं से उनके विजातीय अणुत्व एवं महत् परिमाणों की भी For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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