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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणसाधम्यंवैधयं प्रशस्तपादभाष्यम् रूपरसगन्धानुष्णस्पर्शशब्दपरिमाणैकत्वैकपृथक्त्वस्नेहाः समानजात्यारम्भकाः। सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चासमानजात्यारम्भकाः । रूप, रस, गन्ध, उष्ण से भिन्न सभी स्पर्श, शब्द, परिमाण, एकत्व, एकपृथक्त्व और स्नेह ये नौ गुण अपने अपने समानजातीय गुणों के ही उत्पादक हैं। सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न ये पाँच गुण अपने से भिन्नजातीय वस्तुओं के उत्पादक हैं। न्यायकन्दली रूपादयः स्नेहान्ताः समानजात्यारम्भका: । कारणरूपात् कार्यरूपं रसादसो गन्धाद् गन्धः, स्पर्शात् स्पर्शः स्नेहात् स्नेहो महत्त्वान्महत्त्वमित्यादि योज्यम् । शब्दस्तु स्वाश्रये एव शब्दान्तरारम्भकः । अत्र कारणत्दमानं विवक्षितम्, न त्वसमवायिकारणत्वम्, अन्यथा विजातीयानां पाकजानां निमित्तकारणस्योष्णस्पर्शव्यवच्छेदोऽसङ्गतार्थः स्यात् । नन्वेवं तहि कथं रूपादीनां ज्ञानकारणत्वम् ? न, तद्व्यतिरेकेण समानजातीयारभ्भकत्वस्याभिप्रेतत्वात् ।। ___ सुखादयोऽसमानजात्यारम्भकाः । सुखमिच्छाया: कारणं दुखं द्वेषस्य इच्छाद्वेषौ प्रयत्नस्य सोऽपि कर्मणः। पुत्रसुखं पितरि सुखं जनयति, रूप से लेकर स्नेह पर्यन्त नो गुण समानजातीय गुणों के उत्पादक है। कारणों में रहनेवाले रूप से कार्य में रूप की उत्पत्ति होती है। कारण में रहनेवाले रस से कार्य में रस की उत्पत्ति होती है। कारणों में रहनेवाले गन्ध से कार्य में गन्ध की उत्पत्ति होती है। कारणों में रहनेवाले स्पर्श से कार्य में स्पर्श की उत्पत्ति होती है। कारणों में रहनेवाले स्नेह से कार्य में स्नेह को उत्पत्ति होती है। कारणों में रहनेवाले महत्परिमाण से कार्य में महत्परिमाण को उत्पत्ति होती है। इस प्रकार के वाक्यों की कल्पना करनी चाहिये। शब्द अपने आश्रय में ही दसरे शब्द को उत्पन्न करता है। यहाँ 'आरम्भकत्व' शब्द से सामान्यतः कारणत्व ही विवक्षित है, ( प्रकरण प्राप्त ) असमवायिकारणत्व नहीं, क्योंकि ऐसा न मानने पर उष्ण स्पर्श को प्रकृत लक्ष्यबोधक वाक्य में छोड़ देना असङ्गत होगा, चूंकि उष्ण स्पर्श भी अपने विजातीय पाकजरूपादि गुणों का निमित्तकारण तो है ही। ( उष्ण स्पर्श भी अपने सजातीय उष्ण स्पर्श का असमवायिकरण है)। (प्र०) फिर रूपादि अपने ज्ञान के प्रति कैसे कारण होते हैं ? ( उ०) प्रकृत में समानजातीय गुणों में ज्ञान से भिन्न गुणों की ही गणना करनी चाहिए। अतः ज्ञान से भिन्न अपने सजातीय गुणों की उत्पादकता ही प्रकृत में विवक्षित है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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