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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम द्रव्ये मन: न्यायकन्दली यौगपद्याज्ज्ञानायौगपद्याच्च प्रतिशरीरमेकं मनः" इति । तेन प्रतिशरीरमेकत्वं सिद्धमिति । मनोबहुत्वे ह्यात्ममन:संयोगानां बहुत्वाागपज्ज्ञानानि प्रयत्नाश्च भवेयुः, दृश्यते च कमो ज्ञाननामेकोपलम्भव्यासक्तेन विषयान्तरानुपलम्भाद् निवृत्तव्यासङ्गन चोपलम्भादि त्युक्तम् । एवं प्रयत्नानामपि तमोत्पाद एव, एकत्र प्रयतमानस्यान्यत्र व्यापाराभावात्, समाप्तक्रियस्य च भावात्, तस्मादेकं मनः । तस्यैकत्वे खल्वेक एकदा संयोग इत्येकमेव ज्ञानमेकः प्रयत्न इत्युपपद्यते। यस्तु क्वचिद्युगपदभिमानस्तदलाचक्नवदाशुभावात् , न तु तात्त्विकं यौगपद्यमेकत्र दृष्टेन कार्यक्रमेणान्यत्रापि करणस्य तस्यैव सामर्थ्यानुमानात् ।। नन्वेवं तहि द्वाविमाथी पुष्पितास्तरव इत्यनेकार्थप्रतिभास: कुतः ? कुतश्च स्वशरीरस्य सह प्रेरणधारणे, न, अर्थसमूहालम्बनस्यैकज्ञानस्याप्रतिषेधाद् बुद्धिभेद एव, न तु तथा प्रतिभासः, सर्वासामेकैकार्थनियत्वात् । एवं शरीरस्य चूंकि एक काल में ( एक आत्मा में ) दो ज्ञानों और दो प्रयत्नों की उत्पत्ति नहीं होती है. अतः एक शरीर में एक ही मन है' इस कथन से ( एक शरीरस्थ ) मन में एकत्व संख्या की सिद्धि होती है। अभिप्राय यह है कि ( एक हो शरीर में) अगर अनेक मन मानें जाँय तो मन और आत्मा के संयोग भी उतने हो होंगे, फिर उ: संयोगों से ( एक ही आत्मा एक साथ में ) अनेक ज्ञान एवं अनेक प्रत्यलों की उत्पत्ति होनी चाहिए, किन्तु ज्ञानादि की उत्पत्ति क्रमशः हो देखी जाती है, क्योंकि एक प्रयत्न के समय अन्य विषयों के व्यापार नहीं देखे जाते। उस प्रयत्न जनित व्यापार के समाप्त होने पर फिर अन्य विषयक व्यापार भी होते हैं, अतः ( एक शरीर में) एक हो मन है । उसे एक मान लेने पर आत्मा और मन का संयोग भी एक ही होगा, अतः एक क्षण में एक ही ज्ञान और प्रयत्नादि की उत्पत्ति होगी। कभी-कभी एक ही क्षण में अनेक ज्ञानों और अनेक प्रयत्नों की जो उत्पत्ति दीख पड़ती है, वह भी एक ही क्षण में नहीं होती है, किन्तु अलातचक्र भ्रमण की तरह क्रमशः ही होती है । यह और बात है कि अति शीघ्रता के कारण वह क्रम समझ में नहीं आता है। एक स्थान पर देखे हुए कार्य के क्रम से दूसरी जगह भी उन्हीं सामर्थ्य से युक्त कारणों का अनुमान होता है। (प्र.) तो फिर 'ये दो वस्तुएँ हैं, ये वृक्ष फूले हैं' इत्यादि अनेक विषयों का ज्ञान एवं एक समय अपने शरीर में धारण और प्रेरण आदि क्रियायें कैसे होती हैं ? ( उ०) अनेक विषयक एक समूहालम्बन ज्ञान का खण्डन करना उक्त कथन का अभिप्राय नहीं है, किन्तु एक क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति का खण्डन करना ही उसका अभिप्राय है, चाहे वे एक ही विषयक क्यों न हों ? अगर उक्त ( समूहालम्बन ) ज्ञान विभिन्न विषयक अनेक ज्ञान ही होते तो फिर उनके आकार भी परस्पर विलक्षण ही होते, क्योंकि वे सभी सरस्पर विभिन्न व्यक्तियों में नियत होते हैं। इसी प्रकार विशेष प्रकार के एक ही प्रयत्न से शरीर For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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