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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् । भाषानुवादसहितम् २२३ प्रशस्तपादभाष्यम् मप्यत एव । तदभाववचनादणुपरिमाणम्। अपसर्पणोपसर्पणवचनात्संयोगहोती है । “तदभाववचनादणु मनः" (७।१।२२) सूत्रकार की इस उक्ति से मन में अणु परिमाण की सिद्धि होती है। 'असर्पणोसपण' वचन से अर्थात् 'अपसर्पणमुपसर्पणमशितपीतसंयोगवत् कायान्तरसंयोगश्चादृष्टकारितानि" (५।२।१७) सूत्रकार न्यायकन्दली प्रेरणधारणे च प्रयत्नविशेषादेकस्मादेव भवतः, यथानेकविषयमेकं ज्ञानं तथा तत्कारणाविच्छाप्रयत्नावपीति न किञ्चिद् दुरुपपादम् । पृथक्त्वमप्यत एवेति । सङ्घचानुदिधानादेव पृथक्त्वमपि सिद्धमित्यर्थः। तदभाववचनादणुपरिमाणम् । विभववान्महानाकाशस्तथा चात्मेत्यभिधाय तदभावादणु मन इत्युक्तम् । तस्मादणुपरिमाणं मन इति सिद्धम्। नित्यद्रव्यगतस्य विभवाभावस्य अणुपरिमाणत्याव्यभिचारात् । विभवाभावाश्चास्य युगपज्ज्ञानानुपपत्त्यैव समधिगतः । मनसो विभुत्वे युगपत्समस्तेन्द्रियसम्बन्धाच्चक्षुरादिसनिकृष्टेषु रूपादिषु ज्ञानयोगपद्यं स्यात् । अथ कथमेकेन्द्रियग्राह्येषु घटादिषु मनोधिष्ठितेन चक्षुषा थुगपत्सन्निकृष्टेष ज्ञानानि युगपन्न भवन्ति ? आत्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षाणां यौगपद्यान्न भवन्ति । लावदनेनात्ममनः संयोगस्यैकस्य युगपदनेकस्य ज्ञानस्योत्पादनसामर्थ्याभावः कल्प्यत इति चेत् ? समानमेतद्विभुत्वेऽपि मानसः, तस्मादविभुत्वेऽपि का धारण और प्रेरण दोनों ही होंगे। जैसे कि एक ही सामग्री से अनेक विषयक एक ज्ञान की उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक ही इच्छा और प्रयत्नवाली सामग्री से धारण और प्रेरण दोनों की उत्पत्ति होगी इसमें कुछ भी असङ्गति नहीं है। 'अत एव मन में पृथक्त्व भी है' अर्थात् चूँकि मन में संख्या है, अतः उसमें पृथक्त्व भी है। 'उसके 'अभाव' के कहने से मन में अणु परिमाण भी है' अर्थात् महर्षि कणाद ने वैभवसूत्र के बाद कहा हैं कि 'तदभाबादणु मनः', इसमें मन में अणु परिमाण की सिद्धि होती है । 'जो नित्य दव्य विभु न हो वह अवश्य ही अणु परिमाण का हो' इस नियम में कोई व्यभिचार नहीं है। एक क्षण में एक आत्मा में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं होती है, इसी से समझते हैं कि मन विभु नहीं है । अगर मन विभु हो तोफिर एक ही क्षण में अनेक इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध होने के कारण चक्षुरादि इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध रूपादि विषयक अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति हो जायगी। (प्र०) (हर एक शरीर में एक एक हो मन मान लेने पर भी ) एक हो इन्द्रिय से सम्बद्ध घटादि विषयक अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति क्यों नहीं होती है ? क्योंकि आत्ममन:संयोग इन्द्रिय का मन के साथ संयोग, एवं अनेक विषयों के साथ इन्द्रिय का संयोग ये सभी तो एक ही क्षण में है ही । अगर यह कल्पना करें कि 'उस सामग्री को एक क्षण में एक ही ज्ञान को उत्पन्न करने का सामर्थ्य है, अनेक ज्ञानों को उत्पन्न करने का नहीं तो फिर ज्ञान योगपद्य For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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