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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् २२१ प्रशस्तपादभाष्यम् तस्य गुणाः संख्यापरिमाणपथकत्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वसंस्काराः। प्रयत्नज्ञानायौगपद्यवचनात्प्रतिशरीरमेकत्वं सिद्धम् । पृथक्त्व ___मन के संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व और संस्कार ये आठ गुण हैं। चूंकि सूत्रकार ने कहा है (३।२।३) कि प्रयत्न और ज्ञान एक क्षण में (एक आत्मा में) नहीं होते, अतः सिद्ध होता है कि प्रति शरीर में एक एक मन है । एकत्व संख्या के रहने से ही उसमें पृथक्त्व गुण की भी सिद्धि न्यायकन्दली अपरे पुनरेवमाहुः-ज्ञानसंसर्गाद्विषये प्रकाशमाने प्रकाशस्वभावत्वात् प्रदीपवद्विज्ञानं प्रकाशते, प्रकाशाश्रयत्वात् प्रदीपतिवदात्माऽपि प्रकाशत इति त्रिपुटीप्रत्यक्षतेति । तदप्यसत्, घटीऽयमित्येतस्मिन् प्रतीयमाने ज्ञातृज्ञानयोरप्रतिभासनात् । यत्र त्वनयोः प्रतिभासो घटमहं जानामीति, तत्रोत्पन्ने ज्ञाने ज्ञातृज्ञानविशिष्टस्यार्थस्य मानसप्रत्यक्षता। न तु ज्ञातृज्ञानयोश्चाक्षुषज्ञाने प्रतिभासः, तयोरपि चाक्षुषत्वप्रसङ्गात् । तदेवं सिद्ध मनसि तस्य गुणान् प्रतिपादयति-तस्य गुणा इत्यादिना। सङ्गयाद्यष्टगुणयोगोऽपि मनसो वैधर्म्यम् । सङ्घयासद्भावं कथयति-प्रयत्नेत्यादिना । प्रतिशरीरमेकं मन आहोस्विदनकमिति संशये सति सूत्रकृतोक्तम्-"प्रयत्ना ___कोई कहते है कि (प्र.) जब ज्ञान के सम्बन्ध से विषय प्रकाशित होता है, उसी समय 'प्रकाशस्वभाव' के कारण ज्ञान भी प्रदीप की तरह प्रकाशित हो जाता है, एवं प्रकाश के आश्रय होने के कारण जैसे प्रदीप भी प्रकाशित होता है, वैसे ही प्रकाश रूप ज्ञान के प्रकाशित होने पर आत्मा भी प्रकाशित होता है । इस प्रकार ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय इन तीनों 'पुटों' से युक्त होने के कारण प्रत्यक्षता 'त्रिपुटी' है । (उ०) किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यह घट है' इस प्रकार का प्रत्यक्ष होने पर भी उसमें ज्ञान और ज्ञातो प्रतिभासित नहीं होते। 'घट को मैं जानता हूँ' इत्यादि जिन ज्ञानों से वे प्रकाशित होते हैं, वे घटप्रत्यक्ष के बाद ज्ञान और ज्ञाता विशिष्ट घटादिविषयक और ही मानस प्रत्यक्षात्मक ज्ञान हैं, किन्तु पहिले के घटादि विषयक चाक्षुष प्रत्यक्ष में ही ज्ञान और ज्ञाता ये दोनों भी विषय नहीं होते, क्योंकि तब ज्ञाता और ज्ञान इन दोनों को भी चाक्षुष प्रत्यक्ष का विषय मानना पड़ेगा । इस प्रकार मन के सिद्ध हो जाने पर 'तस्य गुणाः' इत्यादि से मन का गुण कहते हैं। संख्यादि आठ गुणों का सम्बन्ध मन का 'वैधर्म्य' अर्थात् असाधारण धर्म है। प्रयत्न' इत्यादि से 'मन में संख्यादि आठ गुणों का सम्बन्ध है' इसमें प्रमाण देते हैं। 'प्रति शरीर में मन एक है या अनेक ?' इस संशय में सूत्रकार ने कहा है कि For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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