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२२० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये मन:न्यायकन्दली अथेदं स्वस्य प्रकाशः, तदेव प्रकाश्यं प्रकाशश्चेति क्रियाकरणयोरेकत्वं तदवस्थम् । न च स्वोत्पत्तिरेव स्वात्मनि क्रियेत्यपि निदर्शनमस्ति । यदपि स्वसंवेदनासिद्धौ प्रमाणमुक्तं यद्यदायत्तप्रकाशं तत्तस्मिन् प्रकाशमाने प्रकाशते, यथा प्रदीपायत्तप्रकाशो घटो, ज्ञानायत्तप्रकाशाश्च रूपादय इति । तत्रापि यदि ज्ञाननेवार्थप्रकाशोऽभिमतः, तदा तदायत्तप्रकाशा रूपादय इत्यसिद्धमनैकान्तिकञ्चेन्द्रियेण ।
अथ च ज्ञानजन्योऽर्थप्रकाशो न तु ज्ञानमेवार्थप्रकाशस्तदा दृष्टान्ताभाव , ज्ञानजनकस्य प्रदीपस्यार्थप्रकाशकत्वाभावात् । एतेनैतदपि प्रत्युक्तम्- 'अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिद्धयति" इति । नहि ज्ञानस्य प्रत्यक्षताऽर्थस्य दर्शनम्, किन्तु विज्ञानस्योत्पत्तिः, तत्रासंविदितेऽपि ज्ञाने तदुत्पत्तिमात्रेणैवार्थस्य संवेदनं सिद्धयति । कथमन्यस्योत्पत्तिरन्यस्य संवेदनमिति चेत् ? कि कुर्मो वस्तुस्वभावत्वात् । न चैवं सति सर्वस्य संवेदनम् ? तस्य स्वकारणसामग्रीनियमात् प्रतिनियतार्थसंवित्तिस्वभावस्य प्रतिनियतप्रतिपत्तृसंवेद्यस्यैव चोत्पादात् । 'स्व' अर्थात् ज्ञान का नहीं, अतः ज्ञान को अर्थप्रकाश रूप मानने से बौद्ध मत में ज्ञान असंवेद्य' अर्थात् अतीन्द्रिय हो जायगा। अगर ज्ञान को 'स्व का ही प्रकाशक मानें तो फिर एक ही वस्तु प्रकाश्य और प्रकाशक दोनों ही होगी, अतः इस पक्ष में भी करणत्व
और क्रियात्व रूप दो विरुद्ध धर्मों का समावेश रूप असामञ्जस्य है ही। स्व' की उत्पत्ति ही 'स्व रूपा क्रिया है, इसमें कोई दृष्टान्त नहीं है। 'स्वसंवेदन' अर्थात् ज्ञान के स्वप्रकाशत्व में जो यह युक्ति दी जाती है । (प्र. ) जिस का प्रकाश जिसके अधीन रहता है, उस प्रकाशक के प्रकाशित होने पर वह ( प्रकाश्य ) भी प्रकाशित हो जाता है, जैसे कि प्रदीप से प्रकाशित होने वाले घटादि एवं ज्ञान से प्रकाशित होने वाले रूपादि । ( उ०) इस विषय में यह पूछना है कि 'प्रकाश' शब्द से अगर रूपादि विषय का ज्ञान ही इष्ट है तो फिर यह सिद्ध नहीं होता कि रूपादि का प्रकाश ज्ञान के अधीन है। अतः उक्त हेतु इन्द्रियों में व्यभिचरित है। अगर यह कहें कि (प्र.) ज्ञान अर्थ-प्रकाश रूप नहीं है, किन्तु ज्ञान से अर्थ का प्रकाश होता है, ( उ० ) तो फिर इ. विषय में कोई दृष्टान्त नहीं मिलेगा, क्योंकि प्रदीप में अर्थ को प्रकाशित करने का सामर्थ्य नहीं है। कि ज्ञान को ही अर्थ का प्रकाशक माना है। (प्र) अप्रत्यक्ष ज्ञान से अर्थ प्रकाशित नहीं होता है। (उ०) ज्ञान का प्रत्यक्षत्व और अर्थ का प्रकाशन दोनों एक नहीं है, अतः ज्ञान का प्रत्यक्ष न होने पर भी उसकी उत्पत्ति से ही अर्थ प्रकाशित हो जाता है, ( फलतः ज्ञान की उत्पत्ति ही अर्थ का प्रकाश है)। (प्र०) एक वस्तु को उत्पत्ति दूसरे की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? ( उ० ) इसके लिए हम क्या करें ? यह तो वस्तुओं के स्वभाव के अधीन है। (प्र ) इस प्रकार से तो सभी अर्थों का प्रकाशन होना चाहिए ? ( उ० ) वह तो अपने विलक्षण कारणसमूह रूप सामग्री के अधीन है, जिससे कि कुछ नियमित विषयों का ज्ञान कुछ नियमित ज्ञाताओं को ही होता है ।
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