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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २१६ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली स्वप्रकाश: प्रदीपोऽस्ति दृष्टान्त इति चेन्नैवम्, सोऽपि हि पुरुषेण ज्ञायते ज्ञाप्यते चक्षुषा । ज्ञानञ्च तस्य क्रिया, न च स्वयं करणं कर्ता कर्म क्रिया च भवति । यथात्मवादिनां स्वप्रतीतावात्मना युगपत्कर्मक भावः, तथा ज्ञानस्यापि करणादिभाव इति चेन्न, अविरोधात्, ज्ञानक्रियाविषयत्वं कर्मत्वमात्मनस्तस्यामेव च स्वातन्त्र्यात् कर्तृत्वम्, न स्वातन्त्र्यविषयत्वयोरस्ति विरोधः। करणत्वं क्रियात्वन्तु सिद्धसाध्यत्वाभ्यामेकस्य परस्परविरुद्धम, कारणकरणयोरेकत्वाभावात् । एवं परप्रयोज्यता करणत्वमितराप्रयोज्यत्वं कर्तृत्वमित्यनयोरपि विरोधः, विधिप्रतिषेधस्वभावत्वादित्यतो नैषामेकत्र सम्भवो युक्तः। अथ मतम् न ज्ञानस्य करणाद्यभावः स्वसंवेदनार्थः, किन्तु स्वप्रकाशस्वभावस्य तस्योत्पत्तिरेव स्वसंवेदनमिति । अत्रापि निरूप्यते कि तदर्थस्य प्रकाशः ? स्वस्य वा? यद्यर्थस्य प्रकाशः, तदुत्पत्तेरर्थस्य संवेदनं स्यान्न तु स्वस्येति तस्यासंवेद्यतादोषः । में करण भी हो एवं कर्मादि अन्य कारक भी हो। ( प्र ) स्वतः प्रकाश प्रदीप हो इस विषय में दृष्टान्त है ? ( उ ) नहीं, प्रदीप का ज्ञान पुरुष को होता है, ( अतः वह उसका कर्ता है )। वह चक्षु से उत्पन्न होता है, अतः चक्षु उसका करण है, ( वह ज्ञान प्रदीप-विषयक होने के कारण प्रदीप कर्म है), वह क्रिया ( धात्वर्थ) प्रदीप विषयक ज्ञान रूप है । अतः एक ही वस्तु एक ही समय में क्रिया, कर्ता, कर्म और करण नहीं हो सकती है । ( प्र० ) आत्मवादियों ( विज्ञानादि भिन्न स्थिर नित्य आत्मा माननेवालो) के मत में एक ही आत्मतत्त्वज्ञान ( क्रिया ) का कत्तृत्व और कर्मत्व दोनों एक ही समय में एक ही आत्मा में है हो, अतः कर्तृत्व और कर्मत्व दोनों में कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार विज्ञानवादियों के मत में भी उपपत्ति हो सकती है। ( उ०) सविषयक (ज्ञानादि रूप ) एक ही क्रिया का कत्तृत्व और कर्मत्व ये दोनों विरुद्ध नहीं हैं, क्योंकि सविषयक ज्ञान क्रिया का विषयत्व ही उसका कर्मत्व है, एवं उसी क्रिया में स्वतन्त्रता है कत्तृत्व, ये दोनों ही आत्मा में रह सकते हैं, किन्तु क्रियात्व एवं करणत्व ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, क्योंकि करण सिद्ध रहता है, एवं क्रिया साध्य होती है, अतः एक ही व्यक्ति में क्रियात्व एवं करणत्व दोनों नहीं रह सकते । करणत्व एवं कत्तृत्व ये दोनों भी परस्पर विरुद्ध हैं, क्योंकि करण दूसरे के द्वारा प्रयुक्त होता है, एवं कर्ता दूसरे कारकों से बिलकुल ही अप्रयोज्य होता है, अर्थात् स्वतन्त्र होता है। अत: ये दोनों भी एक समय एक में नहीं रह सकते। (प्र०) ज्ञान के प्रकाश के लिए करणादि का अभाव कभी हो ही नहीं सकता, क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति ही उसका प्रकाश है। ( उ० ) इस विषय में यह पूछना है कि ज्ञान अपने विषयों का प्रकाश रूप है ? या 'स्वसंवेदन' 'स्व' अर्थात् अपना ही प्रकाश रूप है ? अगर अर्थ प्रकाश रूप है तो फिर उससे अर्थ का ही 'संवेदन' अर्थात् प्रकाश होगा, For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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