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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६८ www.kobatirth.org न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ द्रव्ये आत्म मतम् -- यस्यान्वयव्यतिरेकावतिशयञ्च यदनुविधत्ते तत्तस्य समानजातीयमुपादानञ्चेति स्थितिः, ज्ञानश्च बोधात्मकत्वमतिशयं बिर्भात तच्च पृथिव्यादिभूतेषु नास्ति, तस्माद्यस्यायमतिशयस्तदस्य समानजातीयमुपादानकारणमिति स्थिते गर्भज्ञानं ज्ञानान्तरपूर्वकं सिद्ध्यति, कारणव्यभिचारे कार्य्यस्याकस्मिकत्वप्रसङ्गादिति । तदप्यसारम्, अदहनस्वभावेभ्यो दारुनिर्भथनादिभ्यो वह्नेर्दाहातिशयोत्पत्तिवदबोधात्मकेभ्योऽपि चक्षुरादिभ्यो बोधात्मकत्वातिशयोत्पत्तिसम्भवे बोधात्मक कारणकल्पनानवकाशात्, अतो न प्राक्तनजन्मसिद्धिर्भविष्यति । जन्मान्तरमित्यपि न सिद्ध्यति, मरणे शरीरान्त्यज्ञानेन ज्ञानान्तरं प्रतिसन्धातव्यमित्यत्र प्रमाणाभावात् । यद्यत्राविकलकारणावस्थं तज्जनयत्येव यथाविकलजननावस्थं बीजमङ्कुरं प्रति, अविकलजननावस्थं चान्त्यं ज्ञानमिति प्रमाणमस्तीति चेत् ? न, ज्वालादीनामन्त्यक्षणेन व्यभिचारात्, स्नेहवत्तिक्षयादीना For Private And Personal उनकी उत्पत्ति अनियमित हो संघर्ष का स्वभाव क्योंकि वह्नि से विभिन्न जातीय धूम की उत्पत्ति होती है । ( प्र० ) वस्तु स्थिति यह है कि जिसका जिसमें अन्वय और व्यतिरेक दोनों ही हों, एवं जिसमें जिसके असाधारण रूप की अनुवृत्ति हो वही उसका समानजातीय हैं और उपादान भी है । ( अतः यह सिद्ध है कि गर्भादि ज्ञान भी पहिले के अपने राजातीय ज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं ) बोधरूपता ही ज्ञान का असाधारण धर्म है, वह पृथिव्यादि भूतों में नहीं हैं । अतः जिसमें वह ( बोधरूपता है ) वही उसका समानजातीय है और उपादान भी है । इससे यह सिद्ध है कि गर्भज्ञान भी पहिले के गर्भज्ञान से ही उत्पन्न होता है, क्योंकि कार्य अगर कारणों के बिना भी हों तो फिर जायगी । ( उ० ) यह कहना भी ठीक नहीं है. क्योंकि काष्ठों के दाह नहीं है काष्ठ से उनके मन्थन के द्वारा दाह स्वभाव के होती है | वैसे ही चक्षुरादि इन्द्रियों में बोधात्मकत्व शक्ति के न से बोध स्वरूप विलक्षण धर्मविशिष्ट ज्ञान की उत्पत्ति में कोई बाधा नहीं है । इसके लिए वोध स्वरूप कारण की कल्पना की आवश्यकता नहीं है । अतः इस मत पूर्वजन्म की सिद्धि असम्भव है। आगे के जन्म की सिद्धि भी असम्भव है क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है कि मृत्यु हो जाने पर अन्तिम ज्ञान रूप शरीर अवश्य ही आगे दूसरे शरीर रूप ज्ञान का अनुसन्धान करेगा। जहाँ पर जिस वस्तु की कारणावस्था में कोई विघटन नहीं हुआ रहता है वहाँ उस कारण से वस्तु की उत्पत्ति अवश्य ही होती है, जैसे कि कारणावस्था के विघटन से रहित बीज से अङकुर की उत्पत्ति अवश्य होती है । शरीर के उक्त अन्तिम ज्ञान की भी कारणावस्था विघटित नहीं है अतः यही प्रमाण इस पक्ष में अपर जन्म का साधक है । ( उ० ) उक्त हेतु अन्तिम क्षण वह्नि को उत्पत्ति रहने पर भी उन
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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