SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् १६९ प्रशस्तपादभाष्यम् शरीरममवायिनीभ्याश्च हिताहितप्राप्तिपरिहारयोग्याभ्यां प्रवृत्तिनिवृत्तिभ्यां रथकर्मणा सारथिवत् प्रयत्नवान् विग्रहस्याधिष्ठातानुमीयते, प्राणादिभिश्चेति । कथम् ? (३) शरीर में समवाय सम्बन्ध से रहने वाली हित की प्राप्ति एवं अहित का परिहार इन दोनों की प्रयोजक क्रियाओं के द्वारा प्रयत्न से युक्त आत्मा रूप शरीर के अधिष्ठाता का अनुमान करते हैं। जैसे कि रथ की गति रूप क्रिया से सारथि का अनुमान होता है । (४) प्राणादि से भी वायु का अनुमान होता है। (प्र०) कैसे ? न्यायकन्दलो मन्त्यज्वालाक्षणस्य कारणावस्थावैकल्यादविकलत्वं नास्तीति चेत् ? अन्त्यज्ञानस्यापि मरणपोडया पीडितस्याविकलकारणावस्थात्वमसिद्धनिति सुव्याहृतं क्षणिकत्वे परलोकाभाव इत्युपरम्यते।। आत्मसिद्धौ प्रमाणान्तरमप्याह--शरीरसमवायिनीभ्यामिति । प्रवृत्ति. निवृत्तिभ्यां प्रयत्नवान् विग्रहस्थ शरीरस्याधिष्ठातानुमीयते। लतादिप्रवृत्तिव्यवच्छेदार्थ शरीरसमवायिनीभ्यामित्युक्तम् । स्रोत:पतितमृतशरीरप्रवृत्तिनिवृत्तिव्यवच्छेदार्थञ्च हिताहितप्राप्तिपरिहारयोग्याभ्यामिति । हितं सुखमहितं दुःखम् , तयोः प्राप्तिपरिहारौ हितस्य प्राप्तिरहितस्य परिहारः, तत्र योग्याभ्यां समर्थाभ्यामिति बुद्धिपूर्वकचेष्टापरिग्रहः । रयकर्मणा सारथिवदिति दृष्टान्त की ज्वाला में व्यभिचरित है। (प्र०) अन्तिम क्षण में तेल बत्ती प्रभृति कारणता के अवैकल्य के सम्पादक नष्ट हो जाते हैं अतः उस क्षण की दीपशिखा की कारणावस्था विघटित हो जाता है । (उ०) तो फिर मरण की पीड़ा से दुःखी अन्तिम शरीर रूप विज्ञान की भी कारणावस्था अविघटित नहीं है । अतः हमने ठीक हो कहा है कि वस्तु मात्र को क्षणिक मानने के पक्ष में परलोक की सिद्धि नहीं होगी अत: इससे विरत होता हूँ। 'शरी रसमला यिनीभ्याम्' इत्यादि से आत्मा की सिद्धि में और भी प्रमाण देते है। प्रवृत्ति और निवृत्ति से शरीर रूप विग्रह (मूर्ति) के प्रयत्न वाले अधिष्ठाता का अनुमान करते हैं। लताओं (वृक्षादि पर चढ़ने) की प्रवृत्ति में व्यभिचार वारण करने के लिए 'शरीरसमवायिनीभाम्' यह पद कहा है। जल के प्रवाह में गिरे हुए शरीर की प्रवृत्ति और निवृत्ति में व्यभिचार वारण के लिए 'हिताहितप्राप्तिपरिहारयोग्याभ्याम्' इत्यादि से प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों में क्रमशः हितप्राप्तियोग्यत्व एवं अहितपरिहारयोग्यत्व ये दोनों विशेषण दिय गये है। 'हित' शब्द का अर्थ है 'सुख' एवं 'अहित' शब्द का अर्थ है दुःख । इन दोनों का जो प्राप्ति परिहार' अर्थात् सुख की प्राप्ति एवं दुःख का परिहार इन दोनों में समर्थ अथात् क्षम। इन दोनों विशेषणों में से ज्ञानजनित चेष्टा का संग्रह For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy