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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये आत्म न्यायकन्दली सत्यभावात्, जनकाजनकक्षणभेदाभ्युपगमः सर्वदावस्थाननाहिप्रत्यक्षबाधितः, सुसदृशक्षणानामव्यवधानोत्पादेनान्तराग्रहणादवस्थानभ्रमोऽयमिति चेत् ? स्थिते क्षणिकत्वे प्रत्यक्षस्य भ्रान्तता, तद्धान्तत्वे च क्षणिकत्वसिद्धिरित्यन्योन्यापेक्षता। न च यद्यस्योत्पत्तिकारणं विनाशकारणञ्चान्वयव्यतिरेकाभ्यामवगतं तयोरभावे तस्योत्पत्तिविनाशकल्पना युक्ता, निर्हेतुको विनाशो, बीजमपि बीजस्य कारणमिति चासिद्धम् । अङकुरजनकं बीजं बीजकृतं न भवति बीजत्वाच्छालिस्तम्भमूर्द्धस्थितबीजवत् । निर्भागं वस्तु तस्य कारकत्वमकारकत्वञ्चेत्यंशावनुपपन्नाविति यत् किञ्चिदेतत् । यथा वह्नहिं प्रति कारकत्वम्, अकारकत्वञ्च स्नानं प्रति, कारण को जिस क्षण में सहकारियों का साहित्य मिलता है, उस से अव्यवहित आगे कार्य की उत्पत्ति होती है। और जिन क्षणों में वह साहित्य उन को नहीं मिलता है उन से अव्यवहित अग्रिम क्षण में कार्य को उत्पत्ति नहीं होती है। इस अन्वय और व्यतिरेक से यह समझते हैं कि वह साहित्यक्षण ही 'जनकक्षण' है और उस से भिन्न सभी 'अजनकक्षण है ( दो प्रकार के क्षणों में रहनेवाले बीजादि कोई एक स्थिर वस्तु नहीं हैं) ( उ०) किन्तु 'जिस बीज को मैंने कल घर में देखा था उसी बीज को आज खेत में देख रहा हूँ' इस प्रकार एक ही बीज में अनेक कालों के सम्बन्ध का ग्राहक प्रत्यक्ष बीजो के क्षणिकत्व का बाधक है। (प्र. ) एक ही बीज में अनेक कालों के सम्बन्ध का भान इस लिए होता है कि उत्पन्न हुए अनेक बीजक्षण परस्पर अत्यन्त सदृश हैं, अतः उन का परस्पर भेद समझ नहीं पड़ता है। फलतः एक ही बीज में अनेक कालों के सम्बन्ध का ग्राहक उक्त प्रत्यक्ष ही भ्रम रूप है। ( उ० ) उक्त प्रत्यक्ष भ्रान्त क्यों है ? इस लिए कि सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं। सभी वस्तुएँ क्षणिक क्यों हैं ? इसलिए कि उक्त प्रत्यक्ष भ्रान्ति रूप है। इस प्रकार इस पक्ष में अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट है। यह तो ठीक नहीं है कि अन्वय और व्यतिरेक से जिन में उत्पत्ति और विनाश की कारणता सिद्ध हो गयी है उन के बिना भी उत्पत्ति और विनाश माने जाँय । एवं ये दोनों बातें भी ठीक नहीं है कि (१) विनाश विना कारण के हो उत्पन्न होता है एवं (२) बीज ही बीज का कारण है । ( 'बीज ही बीज का कारण नहीं है' इस में यह अनुमान भी प्रमाण है कि ) बीज अङकुरजनक बीज का कारण नहीं है क्योंकि मञ्च पर रक्खे हुये बीज की तरह वह भी बीज है । आप (बौद्धों) का यह कहना भी ठीक नहीं है कि ( प्र०) 'वस्तुओं के अनेक भाग नहीं हैं अतः एक ही वस्तु में कारकत्व और अकारकत्व इन दोनों विरुद्ध धर्मों का समावेश नहीं हो सकता है' (उ०) क्योंकि एक ही अग्नि में दाह का कारकत्व भी है एवं स्नान का अकारकत्व For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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