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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् १८५ न्यायकन्दली घट इव शब्देऽपि बाधकस्य प्रवृत्त्यविरोधात् प्रमाणान्तरानुसरणमफलमिति । न चाक्षणिकस्यार्थक्रियानुपपत्तिः, सहकारिसाहित्ये हि सति कार्याकरणस्वभावो हि भावो नानपेक्षकारकस्वरूपः, तस्य यथान्वयव्यतिरेकावगतसामर्थ्याः सहकारिणः सन्निपतन्ति तथा कार्योत्पत्तिरित्युपपद्यते स्थिरस्यापि क्रमेण करणम् । अनेककारणाधीनस्य कार्यस्यैकस्मादुत्पत्त्यभावात् । न च सहकारिसापेक्षित्वे सति सत्कृतादेवातिशयात् कार्योत्पत्तेर्भावो न कारक इति युक्तम्, भावस्वरूपानुगमनेन कार्योत्पाददर्शनात् । अकारकत्वे हि यवबीजस्य क्षित्युदकसंनिधौ शालिबीजाद्यङकुरोऽपि स्यात्, नियमकारणाभावात् । नापि सहकारिणो भावस्य स्वरूपातिशयमादधति, किन्तु सहकारिण एव ते । अतिशयः पुनरेतस्य सहकारिसाहित्यम्, अनतिशयोऽपि तदभाव एव, तस्मिन् सति ततः कार्य्यस्य भावादप्रकार बाधक के उपन्यास और सत्त्व हेतु दोनों की सार्थकता विषय भेद से है। ( उ०) किन्तु उनका यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शब्दादि में ( घटादि पदार्थों की तरह ) उस बाधक के बल से ही क्षणिकत्व की सिद्धि होगी, उसके लिए भी सत्त्व हेतु का अवलम्बन व्यर्थ ही है। वस्तुतः यह कहना ही भूल है कि 'वस्तुएँ अगर क्षणिक न मानी जाँय तो उन से अर्थक्रिया का सम्पादन असम्भव है। क्योंकि वस्तुओं का यह स्वभाव है कि वे सहकारियों से सहायता प्राप्त करके ही कार्यों का सम्पादन करती हैं उन से निरपेक्ष रह कर नहीं । अतः यह निश्चित होने में कोई बाधा नहीं है कि अन्वय और व्यतिरेक से जिस में कार्य को उत्पन्न करने का सामार्थ्य ज्ञात हो गया है, वे सहायक जब बीजादि प्रधान कारणों के साथ सम्मिलित होते हैं तभी कार्यों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार स्थिर वस्तुओं से भी क्रमशः कार्यों की उत्पत्ति हो सकती है। क्योंकि अनेक कारणों से उत्पन्न होने से एक कार्य की उत्पत्ति केवल किसी एक कारण से नहीं हो सकती है। (प्र.) तब फिर सहकारि कारणों से उत्पन्न 'अतिशय' रूप विलक्षण सामर्थ्य से ही उत्पत्ति होगी, 'भाव' (अर्थात् बीजादि मुख्य कारणों) को कारण मानने की क्या आवश्यकता है ? ( उ० ) इसलिए कि कार्यों में भावों के मूल कारणों की अनुवृत्ति देखी जाती है। यदि बीज ( अङ्कुर का ) कारण ही न हो, तो फिर यब के बीज से पृथिवी जलादि सहकारियों का संनिधान रहने पर धान के अङ्कुर की भी उत्पत्ति होगी। क्योंकि ( यव बीज से यवाकुर ही हों एवं धान्य बीज से धान्याङ्कुर ही) इस नियम का कोई ज्ञापक नहीं है। यह कहना भी दूषित है कि मूल कारण में सहकारि कारणों से किसी अतिशय की उत्पत्ति होती है। क्योंकि वे सहकारी ही हैं और उन का साहित्य ही 'अतिशय' है, इस साहित्य का अभाव ही 'अनतिशय' अर्थात विलक्षण सामर्थ्य का न रहना है। (प्र.) मूल For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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