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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये आत्म न्यायकन्दली भूतकार्यञ्च शरीरम्, तस्मादेतदप्यचेतनम् । युक्त्यन्तरमाह---मृते चासम्भवादिति । मृते शरीरे चैतन्यस्यासम्भवादित्यनेनायावद्रव्यभावित्वं विवक्षितम् । चैतन्यं शरीरस्य विशेषगुणो न भवति, अयावद्रव्यभावित्वात् संयोगवत् । अत एव तत्कारणान्यप्यचेतनानि, तेषां चैतन्ये कार्येऽपि चैतन्यं स्यात् । एकस्मिन् शरीरे ज्ञातृबहुत्वञ्च प्राप्नोति । ततश्चैकाभिप्रायेण प्रवृत्तिनियमाभावादिदोषः । नेन्द्रियाणां करणत्वादिति । इन्द्रियाण्यचेतनानि करणत्वाद्दण्डवत् । हेत्वन्तरञ्च समुच्चिनोति-उपहतेष्विति । विनष्टेष्वपीन्द्रियेषु पूर्वानुभूतोऽर्थः स्मर्य्यते, न चानुभवितरि विनष्टे स्मरणं युक्तम्, तस्मान्नेन्द्रियगुणा ज्ञानम् । न च विषयस्य पूर्वानुभूतस्यासान्निध्येऽपि स्मृतिदृष्टा, बाह्येन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वात् । तस्मात् स्मृतिस्तावन्नेन्द्रियाणाम् । तदभावादनुभवोऽपि न स्यादन्यस्यानुभवेऽन्यस्यास्मरणादित्यर्थः । अत एव विषयस्यापि न चैतन्यम्, नष्टे विषये जितने भी कार्य भूतद्रव्यों से उत्पन्न होते हैं वे सभी अचेतन ही होते हैं, जैसे कि धटादि । शरीर भी भूत द्रव्य का ही कार्य है, अतः उसमें भी चैतन्य नहीं है । 'मृते चासम्भवात्' इत्यादि से इसी प्रसङ्ग में दूसरा हेतु देते हैं कि मृत शरीर में चैतन्य असम्भव है। इससे यह अनुमान अभीष्ट है कि चैतन्य ( ज्ञान ) शरीर का विशेषगुण नहीं है. क्योंकि वह अयावद्रव्य भावी है, जैसे कि संयोग । इसी हेतु से शरीर के अवयवों में भी चैतन्य नहीं है। यदि वे चेतन होते तो उनका कार्य शरीर भी चेतन होता। शरीर के अवयवों को अगर चेतन मान लें तो फिर एक ही शरीर में अनेक ज्ञाताओं की सत्ता माननी पड़ेगी। जिससे एक अभिप्राय के द्वारा नियमित प्रवृत्त्यादि की अनुपपत्ति होगी । 'नेन्द्रियाणां करणत्वात्' इन्द्रियाँ अचेतन हैं, क्योंकि करण हैं, जैसे कि दण्डादि । 'उपहतेषु' इत्यादि से इसी प्रसङ्ग में दूसरा हेतु देते हैं । इन्द्रियों के नाश हो जाने पर भी उनके द्वारा अनुभूत विषयों को स्मृति होती है। फिर तो अनुभव करने वाली इन्द्रिय का नाश हो जाने पर उससे अनुभूत विषयों का स्मरण होना उचित नहीं है, अतः ज्ञान इन्द्रियों का गुण नहीं है । ( इस में एक युक्ति यह भी है कि) इन्द्रियों का यह स्वभाव है कि जिस विषय के साथ उन का सम्बन्ध विद्यमान रहता है, उसी विषय के ज्ञान का वह उत्पादन करती हैं। किन्तु जिस समय जिस विषय के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध न भी रहे उस समय भी उस विषय को स्मृति होती है, अतः स्मृतियों की उत्पत्ति इन्द्रियों से नहीं होती है। इन्द्रियों में अनुभव करने की क्षमता भी नहीं है, क्योंकि अनुभव करने की एवं स्मरण करने की क्षमता एक ही वस्तु में होनी चाहिए। यह कभी नहीं होता कि अनुभव कोई करे एवं स्मृति किसी और को हो। ठीक इन्हीं कारणों से विषयों में भी चैतन्य नहीं For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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