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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् उपहतेषु विषयासान्निध्ये चानुस्मृतिदर्शनात् । नापि मनसः, करणान्तरानपेक्षित्वे युगपदालोचनस्मृतिप्रसङ्गात्, स्वयं करणभावाच्च । परिका सामीप्य न रहने पर या इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी स्मृति को उत्पत्ति देखी जाती है। ज्ञान मन का भी धर्म नहीं है, क्योंकि मन को अगर (चक्षुरादि) अन्य कारणों से निरपेक्ष होकर ज्ञान का समवायिकारण मानें तो फिर एक ही समय एक ही व्यक्ति को आलोचनज्ञान और स्मृति दोनों होंगी। एवं मन स्वयं करण न्यायकन्दली तत्स्मरणायोगात् । इतोऽपि न तस्य चैतन्यम्, तद्देशज्ञानस्य तज्जन्यस्य च सुखादे. रननुभवात्, बुद्धिपूर्वकचेष्टाविशेषाभावाच्च । न चेन्द्रियचैतन्ये विषयचैतन्ये च रूपमद्राक्षं रसमन्वभवं स्पर्श स्पृशामि गन्धं घ्रास्यामीति रूपादिप्रत्ययानामेकैकरूपत्वप्रतिपत्तिसम्भवः, रूपादीनां चक्षुरादीनाञ्च भेदात् । __ अस्तु हि मनोगुणो ज्ञानम् ? तस्य सर्वविषयत्वे नित्यत्वे च प्रतिसन्धानाधुपपत्तेस्तत्राह-नापि मनस इति । मनो यदि चक्षुरादिविविक्तं कारणान्तरमपेक्ष्य रूपादीन् प्रत्येति, सज्ञाभेदमात्रे विवादः, यदपेक्षणीयं तन्मनो यच्च ज्ञानाधिकरणं स्वीकार किया जाता, क्योंकि विषयों के नष्ट हो जाने पर भी उनकी स्मृति होती है। विषयों में चैतन्य न मानने में एक यह भी युक्ति है कि वे ज्ञान के आश्रय रूप में ज्ञात नहीं होते, एवं उनमें ज्ञानजनित सुख का भी अनुभव नहीं होता है, एवं विषयों में ज्ञानजनित विशेष प्रकार की चेष्टा भी नहीं है। इन्द्रियों में या विषयों में चैतन्य मान लेने से 'मैंने रूप को देखा, मैंने रस का अनुभव किया, मैं स्पर्श का अनुभव कर रहा हूँ, मैं गन्ध को सूघूगा' इत्यादि विभिन्न प्रतीतियों में एक कर्ता के द्वारा उत्पन्न होने का अनुभव ठीक नहीं बैठेगा। क्योंकि वे रूपादि और उनकी ग्राहक इन्द्रियाँ भिन्न-भिन्न है । (प्र.) ज्ञान को मन का ही गुण मान लीजिए, क्योंकि वह सभी विषयों का ग्राहक एवं नित्य भी है। अत: शरीर में, इन्द्रियों में या विषयों में चैतन्य मान लेने से होने वाली स्मृति की अनुपपत्तियां आपत्तियाँ इस पक्ष में नहीं आयेंगी। इसी पूर्वपक्ष का खण्डन 'नापि मनसः' इत्यादि से करते हैं। मन यदि चक्षुरादि इन्द्रियों से भिन्न किसी (कारणान्तर) इन्द्रिय की सहायता से रूपादि विषयों के ज्ञान का उत्पादन करता है तो फिर नाममात्र का विवाद रह जाता है। क्योंकि आप के मत से ज्ञान के उत्पादन में मन को चक्षुरादि इन्द्रियों से भिन्न जिस इन्द्रिय की अपेक्षा होती है. उसे हम लोग 'मन' कहते हैं । एवं ज्ञान के जिस अधिकरण को आप 'मन' कहते हैं, वही हम लोगों For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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