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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् १७१ प्रशस्तपादभाष्यम् प्रसाधकोऽकोनुमीयते। न शरीरेन्द्रियमनसाम् ,अज्ञत्वात् । न शरीरस्य चैतन्यम्, घटादिवद् भूतकार्यत्वात्, मृते चासम्भवात् । नेन्द्रियाणाम्, करणत्वात्, उक्त क्रिया के आश्रय रूप कारण आत्मा का अनुमान करते हैं । यह आश्रयत्व (कर्तृत्व) शरीर, इन्द्रिय एवं मन इन तीनों में सम्भव नहीं है, क्योंकि वे अज्ञ (जड़) हैं । चैतन्य (ज्ञान) शरीर का धर्म नहीं है, क्योंकि वह ( शरीर ) घटादि की तरह भूत द्रव्य से उत्पन्न होता है । एवं मृत शरीर में ज्ञान सम्भव भी नहीं हैं । वह (चैतन्य) इन्द्रियों का भी धर्म नहीं है, क्योंकि वे (ज्ञानक्रिया के ) करण हैं। एवं इन्द्रियों न्यायकन्दली कुसृष्टिकल्पना ? पूर्वोत्तरधियौ स्वात्ममात्रनियते, कुतस्तस्याः कारणहमस्याश्चास्मि कार्यमिति प्रतीयेताम्, परस्परवा नभिज्ञत्वात् । ताभ्यामगृहीतं कुतोऽध्यवस्यति, तस्यानुभवानुसारित्वात् ? भवतु पराश्रितं ज्ञानम्, तदधिकरणन्तु शरीरमिन्द्रियं मनो वा भविष्यति । तत्राह-न शरीरेन्द्रियमनसामिति । उत्तरवाक्यस्थितं चैतन्यमिति पदमिह सम्बद्धयते । शरीरेन्द्रियमनसां चैतन्यं न भवति, कुतस्तत्राह-अज्ञत्वादिति । ज्ञान प्रति समवायिकारणत्वाभावादित्यर्थः । । नन्वेतदपि साध्याविशिष्टमित्याशङ्कयाह-न शरीरस्येति । चैतन्यं शरीरस्य न भवति घटादिवच्छरीरस्य भूतकार्यत्वात्, यद् भूतकार्य न तच्चेतनं, यथा घटः। गृहीत होता है । ( उ०) एक तो यह कल्पना ही बड़ी विचित्र है कि वे दोनों ज्ञान अपने स्वरूप को समझ सकते हैं। फिर पूर्वविज्ञान को यह भान ही कैसे होगा कि 'उत्तरविज्ञान का कारण मैं ही हूँ'। एवं उत्तरविज्ञान को भी यह कैसे पता चलेगा कि 'मैं पूर्वविज्ञान का कार्य हू । क्योंकि दोनों ही अपने से भिन्न किसी भी विज्ञान के स्वरूप और प्रभाव से अनभिज्ञ हैं । फिर दोनों विज्ञानों से अगृहीत कार्यकारणभाव का निश्चय कैसे होगा ? क्योंकि निश्चय अनुभवमूलक है। (प्र०) मान लिया कि ज्ञान का अपने से भिन्न कोई आश्रय है। किन्तु वह आश्रय शरीर, इन्द्रिय एवं मन भी हो सकता है ? इसी प्रश्न के उत्तर में "शरीरेन्द्रियमनसाम्" इत्यादि पंक्ति लिखते हैं। इस वाक्य के आगे लिखित 'न शरीरस्य चैतन्यम्' इस वाक्य के चैतन्य पद का अनुसन्धान करके प्रकृत वाक्य को 'न शरीरेन्द्रियमनसां चैतन्यम्' इस प्रकार पढ़ना चाहिए । उक्त प्रश्न का ही 'अज्ञत्वात्' इत्यादि से समाधान करते हैं । अर्थात् शरीरादि ज्ञान के समवायिकारण नहीं हैं। किन्तु यह भी तो सिद्ध नहीं है, किन्तु साध्य ही है, अत: 'शरीरादि प्रत्येक में चैतन्य नहीं है' यह प्रतिपादन करने के लिए "न शरीरस्य" इत्यादि सन्दर्भ लिखते हैं । शरीर में चैतन्य नहीं है, क्योंकि वह घटादि जड़ द्रव्यों की तरह भूत द्रव्य का कार्य है । For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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