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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम [द्रव्ये आत्म न्यायकन्दली प्रतिक्षणविनाशि वा ? यदि नित्यम् ? संज्ञाभेदमात्रम् । अथ क्षणिकम्, चिरानुभूतस्य न स्मरणम्, प्रतिपत्तृभेदात् । यत्तु कार्यकारणभावात् पूर्वक्षणानुभूतस्योत्तरेण स्मरणम्,यत्पुनः पित्रानुभूतस्य पुत्रेणास्मरणम्, तत्र पितृपुत्रज्ञानयो: कार्यकारणभावाभावात्, शरीरयोश्च तथाभूतयोरचेतनत्वात् । तदयुक्तम्, आत्माभावे कार्यकारण भावस्यानिश्चयात् । कारणविज्ञानकाले कार्यज्ञानमनागतम्, तत्काले च कारणमतीतम् । न च ताभ्यामन्यः कश्चिदेको द्रष्टास्तीति कस्तयोः क्रमभाविनोः कार्यकारणभावं प्रतीयात् । अथ मतम्, स्वात्मनाहिणी पूर्वा बुद्धिः स्वात्माव्यतिरिक्तिं स्वस्य कारणत्वमतिरूपं गोचरयति । उत्तरापि बुद्धिः स्वरूपविषया तदव्यति. रिक्तमात्मीयं कार्यत्वमपि गृहणाति, ताभ्याञ्च प्रत्येकमुपातं कारणत्वं कार्यत्वं च तदुभयजनितैकवासनाबलभुवा विकल्पेनाध्यवसीयत इति चेत् ? अहो है, या प्रशिक्षण विनाशशील ? अगर नित्य है तो फिर फलतः आत्मा ही है, केवल नाम का अन्तर है। अगर प्रतिक्षण विनाशशील है तो फिर बहुत दिन पहिले अनुभूत विषय का आज स्मरण नहीं होगा क्योंकि स्मृति और अनुभव के कर्ता (प्रकृत में ) भिन्न हैं, (किन्तु अनुभव और स्मृति दोनों का एक ही कर्ता होना चाहिए) (प्र.) पहिले जिस विषय का ज्ञान चक्षुरादि से होता है, वहीं अपने विनाश काल के उत्तर क्षण में उसी विषय के दूसरे ज्ञान को जन्म देता है, फलतः कारणीभूत ज्ञान से ही अनुभूत विषय का स्मरण होता है । 'पिता से अनुभूत विषय का स्मरण पुत्र को नहीं होता है' इस में यह हेतु है कि पितृविज्ञान पुत्रविज्ञान का कारण नहीं है। पितृशरीर पुत्रशरीर का कारण है, किन्तु शरीर अचेतन हैं। (उ.) आत्मा अगर न माना जाय तो दोनों विज्ञानों में कार्यकारणभाव है, यही निश्चय नहीं हो पायेगा। क्योंकि जिस क्षण में कारणविज्ञान है, उस समय कार्यविज्ञान भविष्य के ही गर्भ में रहता है । जिस क्षण में कार्यविज्ञान की सत्ता रहती है, उसी क्षण कारणविज्ञान का नाश हो जाता है। उन दोनों से भिन्न देखनेवाला कोई नही है, फिर क्रमशः उत्पन्न होनेवाले उन दोनों विज्ञानों के कार्यकारणभाव को कौन समझे ? (प्र.) विज्ञान जिस प्रकार विषयों को समझता है, उसी प्रकार अपने स्वरूप को भी समझता है। कारणविज्ञान का कारणत्व ही स्वरूप है, फिर कारणविज्ञान ही अपने से अभिन्न कारणत्व को भी समझता है। इसी प्रकार उत्तरकाल में होनेवाले कार्यविज्ञान को भी कार्यत्व का ज्ञान है। फलतः कारणविज्ञान को कारणत्व का ज्ञान है और कार्यविज्ञान को कार्यत्व का ज्ञान है। फिर दोनों विज्ञानों से वासना रूप विलक्षण बल से युक्त 'विकल्प' नाम के ज्ञान को उत्पति होती है। उससे ही कार्यकारणभाव For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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