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( ११ )
'इदानीं घटः, तदानीं घटः' इत्यादि प्रतीतियों की उपपत्ति के लिए 'काल' नाम के एक द्रव्य की सत्ता माननी पड़ती है। क्योंकि 'इदानीम्, तदानीम्' इत्यादि प्रतीतियों का विषय यद्यपि सूर्य नक्षत्रादि की क्रियायें प्रतीत होती हैं, किन्तु सूर्यादि नक्षत्रों का साक्षात् सम्बन्ध घटादि विषयों के साथ नहीं है, अतः एक काल रूप अतिरिक्त द्रव्य मानकर उसके द्वारा सूर्यादि नक्षत्रों की क्रिया द्वारा उक्त प्रतीतियों की उपपत्ति होती है । अतः काल नाम का एक स्वतन्त्र द्रव्य अवश्य है । उत्पन्न होनेवाले सभी पदार्थों के साथ इसका सम्बन्ध एवं अन्वय है, अतः वह सभी जन्यों का कारण भी है और आश्रय भो । यद्यपि क्षण मूहूर्त्तादि से लेकर मन्वन्तरादि अनेक रूपों में इसका व्यवहार होता है, फिर भी वे विभिन्न प्रतीतियों औपाधिक ही हैं । काल वस्तुतः एक ही है । काल के द्वारा हो नये ओर . पुराने का व्यवहार या ज्येष्ठत्व कनिष्ठत्व का व्यवहार, अर्थात् कालिक परत्व और कालिक अपरत्व का व्यवहार भी होता है ।
पाटलिपुत्र से काशी की अपेक्षा प्रयाग दूर है एवं प्रयाग की अपेक्षा पाटलिपुत्र से काशी समीप है --- इस दूरत्व और समीपत्व की प्रतीति के लिए 'दिक' नाम का एक द्रव्य माना जाता है। इसी कारण उक्त प्रतीतियाँ होती हैं । यह भी एकही ही है और नित्य भी है । पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर प्रभृति के जो विभिन्न व्यवहार होते हैं वे सभी उपाधिमूलक हैं । अगर दिशा के प्राच्यादि भेद वास्तविक होते हो तो पूर्व में सदा पूर्वत्व का ही व्यवहार होता और पश्चिम में सदा पश्चिमत्व का ही । किन्तु सो नहीं होता, क्योंकि जिसमें एक की अपेक्षा पूर्वत्व का व्यवहार होता है, उसीमें उस से भी पूर्व में रहनेवाले की अपेक्षा पश्चिमत्व का व्यवहार होता है । इसी प्रकार पश्चिम में भी किसी पश्चिमेतर की अपेक्षा पूर्वत्व का व्यवहार होता है, अतः दिशा के पूर्वपश्चिमादि भेद औषधिक हैं, वास्तविक नहीं । अतः दिक् भी एक ही है ।
'अहं सुखी, अहं दुःखी, अहं जानामि' इत्यादि प्रत्यक्षात्मक प्रतीति सार्वजनीन हैं । इन प्रत्यक्षों के द्वारा ही सुखदुःखादि के आश्रय रूप आत्मा की सिद्धि होती है, फिर भी सुखदुःखादि के आश्रय शरीर या इन्द्रिय अथवा मन क्यों नहीं हैं ? ये प्रश्न रह जाते हैं । इन प्रश्नों के उत्तर के बिना आत्मा तत्त्वतः ज्ञात नहीं हो सकता । अतः 'शरीरादि आत्मा नहीं हैं' यह समझना आवश्यक है ।
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शरीर को ही आत्मा माननेवालों का कहना है कि आत्मा कोई प्रत्यक्षदृष्ट वस्तु नहीं है । जो सम्प्रदाय आत्मा को स्वीकार करते हैं वे भी सुखादि प्रत्यक्ष के लिए आत्मा में शरीर का सम्बन्ध आवश्यक मानते हैं । अत एव वे शरीर को आत्मा के भोग का 'आयतन' कहते हैं । ऐसी स्थिति में शरीर के साथ जब सुखादि का अन्वय और व्यतिरेक सर्वसिद्ध है, अतब शरीर को सुखादि का कारण सभी को मानना आवश्यक है | अतः शरीर का ही समवायिकारण क्यों न स्वीकार कर लें ? सुतराम् 'अहं सुखी' इत्यादि वाक्य का 'अहम्' शब्द का अर्थ शरीर ही है, फलतः शरीर ही आत्मा है । आत्मा नाम का कोई अतिरिक्त स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है । यह पक्ष सांसारिक साधारण जनों से स्वीकृत होने के कारण अधिक सरल है । वस्तुतः हम सभी सांसारिक
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