SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १२ ) Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राणि शरीरात्मवादी ही हैं । इसी पक्ष के अनुसार हमारे सभी व्यवहार चलते हैं । अतः इसकी विशेष रूप से समीक्षा आवश्यक है । ज्ञान ही वस्तुतः चैतन्य है । चैतन्य से युक्त वस्तु ही चेतन कहलाता है । शरीर पाञ्चभौतिक है, पाँच भूतों में से कोई भी चेतन नहीं है । फिर भी उनकी समष्टि में चैतन्य की उत्पत्ति शरीरात्मवादी इस प्रकार करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में जो धर्म नहीं भी रहता है, समूह में वह धर्म रह सकता है । जैसे कि मदिरा के उपादानों में से किसी एक मैं मादक शक्ति न रहने पर भी उस समूह से निर्मित मदिरा में मादक शक्ति रहती है, उसी प्रकार पृथिवी प्रभृति पाँच भूतों में से प्रत्येक में चैतन्य के न रहने पर भी उन पाँचों से निर्मित शरीर में चैतन्य रह सकता है । शरीर ही है । शरीर को आत्मा न माननेवाले या शरीर में चैतन्य न माननेवालों का कहना है कि शरीर को अगर चैतन्यस्वभाव का माना जाय तो फिर मृत शरीर में भी चैतन्य मानना पड़ेगा क्योंकि मृतशरीर भी तो अतः शरीर में चैतन्य नहीं माना जा सकता । शरीर को चेतन मानने के पक्ष में दूसरी बाधा यह उपस्थित होती है कि इस पक्ष में शरीर के प्रत्येक अवयव में चैतन्य मानना पड़ेगा ? या फिर सम्पूर्ण शरीर में ? इन दोनों में से पहिला पक्ष इसलिए नहीं मान सकते कि शरीर के हाथ रूप अवयव के द्वारा अनुभूत विषय का उसके कट जाने पर स्मरण नहीं हो सकेगा, क्योंकि स्मरण के प्रति जो पूर्वानुभव कारण है उसमें समान कत्व भी आवश्यक है । अर्थात् जिस पुरुष को जिस विषय का पूर्व में अनुभव रहेगा उसी पुरुष को उस अनुभवजनित उपयुक्त संस्कार के द्वारा समय आने पर उस विषय का स्मरण होगा, किसी अन्य पुरुष को नहीं जैसा कि देवदत्त के पूर्वानुभव से यज्ञदत्त को स्मरण नहीं हो सकता । इस कार्यकारणभाव के अनुसार शरीर के हाथ रूप अवयव के द्वारा अनुभव के बाद उस हाथ रूप अनुभविता के नष्ट हो जाने पर उस विषय का अगर स्मरण मानेंगे तो एक के द्वारा अनुभूत विषय का स्मरण दूसरे से मानना पड़ेगा, अतः शरीर के प्रत्येक अवयव में चैतन्य या ज्ञान नहीं माना जा सकता । एवं शरीर रूप अवयवी में भी चैतन्य नहीं माना जा सकता । क्योंकि प्रत्येक अवयवी एक क्षण में उत्पन्न होकर दूसरे क्षण में रहकर तीसरे क्षण में नष्ट हो जाता है । आगे फिर इसी प्रकार उत्पत्ति और विनाश का क्रम चलता है । ( बौद्धों के क्षणिकत्व सिद्धान्त में और वैशेषिकों के क्षणिकत्व सिद्धान्त में यही अन्तर है कि वैशेषिक लोग कुछ पदार्थों को नित्य भी मानते हैं । और एक क्षण में उत्पत्ति दूसरे क्षण में स्थिति और तीसरे क्षण में नष्ट हो जाने को क्षणिकत्व कहते हैं । बौद्धलोग सभी पदार्थों को क्षणिक ही मानते हैं किसी पदार्थ को नित्य नहीं मानते और क्षणिक उस उत्पत्ति विनाश की परम्परा को कहते हैं जिसमें पदार्थ एक क्षण में उत्पन्न होकर दूसरे ही क्षण में विनाश को प्राप्त होता है) वैशेषिक लोग अवयवियों को क्षणिक इसलिए मानते हैं कि उत्पन्न होने के बाद उसमें ह्रास और वृद्धि देखी जाती है । एक ही मनुष्यशरीर कभी दुबला और मोटा कभी छोटा और कभी बड़ा देखा जाता है । किन्तु एकही आदमी छोटे और बड़े परिमाण का आश्रय नहीं हो सकता । क्योंकि अवयव के परिणाम और अवयवों की संख्या ही अवयवी में रहने For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy