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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( १० ) बनाकर अनुमान को उपस्थित नहीं किया जा सकता। जैसे कि 'आकाशः अस्ति, शब्दाश्रयत्वात्' यह अनुमान नहीं हो सकता, क्योंकि पक्ष को अपने स्वरूप (पक्षतावच्छेदक ) से युक्त होकर पहिले से सिद्ध रहना चाहिए। जैसे 'पर्वतो बह्निमान् धूमात्' इत्यादि स्थलों में पर्वतत्वादि से युक्त पर्वतादि पहिले प्रत्यक्ष के द्वारा सिद्ध रहता है । अत: इस प्रकार के स्थलों में परिशेषानुमान का अवलम्बन करना पड़ता है। आकाश नाम के एक स्वतन्त्र द्रव्य के साधक परिशेषानुमानों की परम्परा इस प्रकार है कि चक्षु से न दीखनेवाले, अथ च रसनादि और बाह्य इन्द्रियों से गृहीत होनेवाले गुण सामान्यगुण नहीं होते, विशेषगुण ही होते हैं-यह बात स्पर्श को दृष्टान्त मानकर अच्छी तरह समझा जा सकता है, क्योंकि स्पर्शगुण का चक्षु से ग्रहण नहीं हो सकता, अथ च वह त्वचा रूप बहिरि नि, य से गृहीत होता है, अतः वह विशेषगुण है । ___ इसी प्रकार शब्द भी विशेषगुण ही है, क्योंकि उसका ग्रहण चक्षु से नहीं हो सकता, अथ च श्रोत्र रूप बहिरिन्द्रिय से उसका ग्रहण होता है । अतः शब्द विशेषगुण ही है, सामान्य गुण नहीं। यह पहिले सिद्धवत् समझ लेना चाहिए कि दिक; काल और मन इन तीन द्रव्यों में विशेषगुण नहीं रहते, अतः शब्द कालादि के गुण नहीं हो सकते । आकाश अभी विवादास्पद है। अतः आकाश को न मानने की स्थिति में शब्द अगर विशेष गुण है तो फिर पृथिवी, जल, तेज, वायु और आत्मा इन्हीं में से किसी का वह विशेष गुण होगा। इनमें से पृथिवी, जल, तेज और वायु ये चार स्पर्श से युक्त हैं । स्पश से युक्त द्रव्यों के जितने प्रत्यक्ष दीखनेवाले विशेष गुण हैं उनका यह स्वभाव है कि या तो वे अग्नि के संयोग से उत्पन्न हों, जैसे कि पके हुए घट का रक्त रूप या फिर कारण के गुण से उत्पन्न हों, जैसे कि पट का रक्त रूप तन्तु के रक्त रूप से उत्पन्न होता है। अगर शब्द को स्पर्श से युक्त द्रव्य का विशेषगुण मानगे तो फिर शब्द की उत्पत्ति भी अग्नि के संयोग से या उपादान कारणों में रहनेवाले गुणों से ही माननी होगी, किन्तु दोनों में से कोई भी सम्भव नहीं है, क्योकि संयोग और विभाग से शब्द की उत्पत्ति प्रत्यक्ष से सिद्ध है। जिस प्रकार सुख रूप विशष गुण कारणगुणपूर्वक और अग्निसंयोगासमवायिकारणक न होने से स्पर्श से युक्त पृथिव्यादि चार द्रव्यों का विशेष गुण नहीं हो सकता, उसी प्रकार शब्द भी स्पर्श से युक्त पृथिव्यादि चार द्रव्यों का विशेष गुण नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मा के विशेष गुण गृहीत नहीं होते, शब्द का ग्रहण श्रोत्र रूप बाह्य इन्द्रिय से होता है, अतः वह आत्मा का विशेष गुण नहीं हो सकता। तस्मात् पृथिवी, जल, तेज, वायु, काल, दिक, आत्मा और मन इन आठ द्रव्यों से भिन्न कोई द्रव्य मानना होगा, जो शब्द का उपादान या समवायिकरण हो। इसी द्रव्य का नाम 'आकाश' है। आकाश स्वरूप श्रोत्रेन्द्रिय की चर्चा कर चुके हैं। यह ( श्रोत्रेन्द्रिय ) नित्य, विभु, आकाश स्वरूप होने के कारण एक ही है । किन्तु प्राणियों के अङ्गविशेष (कर्णशष्कुली) के उपाधि के कारण भिन्न-भिन्न हैं । अतः उनके भेद से श्रोत्रेन्द्रिय परस्पर भिन्न प्रतीत होते हैं और एक के श्रवणेन्द्रिय से दूसरे की आत्मा में शब्द का प्रत्यक्ष नहीं होता। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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