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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् १५७ न्यायकन्दली सहभावो यौगपद्यमित्यपरे, तदसङ्गतम्, कालानभ्युपगमसहार्थाभावात् । कस्याञ्चित् क्रियायां भावानामन्योन्यप्रतियोगित्वं सहार्थ इति चेन्न, अनुत्पन्नस्थितनिरुद्धानामन्योन्यप्रतियोगित्वाभावात् सहभवताञ्च प्रतियोगित्वे कालस्याप्रत्याख्यानमेवेत्युक्तम् । एवमयुगपदादिप्रत्यया अपि समर्थनीयाः । कालस्याभेदात् कथं प्रत्ययभेद इति चेत् ? सामग्रीभेदात्, वस्तुद्वयस्योत्पादसद्भावयोर्यदेकेन ज्ञानेन ग्रहणं तत्सहकारिणा कालेन परापरप्रत्ययौ जन्येते, भूयसामुत्पादव्यापारयोरेकग्रहणसहकारिणा युगपत्प्रत्ययः, कार्यस्योत्पादविनाशयोरन्तत्तिनां क्रियाक्षणानां भूयस्त्वाल्पीयस्त्वग्रहणसहकारिणा चिरक्षिप्रप्रत्ययाविति यथासम्भवं वाच्यम् । ननु तत्तन्निबन्धन एवास्तु प्रत्ययभेदः कृतं कालेन ? न, असति तस्मिन् वस्तूत्पादाभावात् । न तावदत्यन्तसतो गगनस्योत्पादः, नाप्यत्यन्तासतो नरविषाणस्य, किन्तु प्रागसतः। कालासत्त्वे चाभावविशेषणस्य प्राक्शब्दार्थस्याभावान्नायं विशेषः कोई कहते हैं कि एक साथ रहना ही 'योगपद्य' है एक कालिकत्व नहीं, किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि काल के न मानने पर 'सह' शब्द का कुछ अर्थ ही नहीं होता है। (प्र०) किसी क्रिया में अनेक वस्तुओं का अविरोधित्व ही 'सह शब्द का अर्थ है । ( उ०) जिसकी उत्पत्ति नहीं हुई है, एवं जो विद्यमान है, एवं जिसका नाश हो गया है, इन तीनों में परस्पर विरोध की कोई सम्भावना ही नहीं है। एक साथ होनेवाले पदार्थों में अगर परस्पर विरोध माने तो एक काल का न मानना असम्भव ही है। इसी प्रकार अयोगपद्य विषयक प्रतीति का भी समर्थन करना चाहिए । (प्र०) काल अगर एक ही है तो तन्मूलक प्रतीतियों में अन्तर क्यों है ? ( उ० ) कारणों ( सामनी) के भेद से । एक वस्तु की उत्पत्ति और दूसरी वस्तु को स्थिति इन दोनों का एक ज्ञान से ग्रहण ही परत्व और अपरत्व की प्रतीति है। यह प्रतीति अपने सहकारी कारण 'काल' से उत्पन्न होती है। बहुत सी वस्तुओं के उत्पादन आदि व्यापारों के एक ज्ञान का सहकारिकाणीभूत 'काल' से ही युगपत्प्रत्यय होता है। कार्यों की उत्पत्ति और विनाश के बीच की क्रियाओं के आधार जितने क्षण हैं, उन्हीं की न्यूनता और अधिकता से विलम्बत्व और क्षिप्रत्व की प्रतीति होती है । इसी प्रकार और भी कल्पना करनी चाहिए । (प्र०) (सहकारी काल के अतिरिक्त उनके और) निमित्तों से ही उन विलक्षण (युगपदादि) प्रत्ययों की उत्पत्ति हो ? (उ०) काल की सत्ता न मानने से सभी वस्तुओं की उत्पत्ति ही अनुपपन्न हो जाएगी, क्योंकि अत्यन्त 'सत्' वस्त की उत्पत्ति नहीं होती है, जैसे कि गगनादि की, अत्यन्त असत वस्तु को भी उत्पत्ति नहीं होती है, जैसे कि नरविषाण की। किन्तु 'प्रागसत्' अर्थात् पहिले से अविद्यमान वस्तु की ही उत्पत्ति होती है। अगर 'काल' For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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