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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [द्रव्य काल न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली सिद्धयतीति न कस्यचिदुत्पत्तिः स्यात् । अप्रत्यक्षेण कालेन कथं विशिष्टा प्रतीतिरिति चेत् ? तत्राह कश्चित्-विशिष्टप्रत्ययस्योत्पत्ताविन्द्रियवत् कारणत्वं कालस्य, न तु दण्डवद् विशेषणत्वमिति, तद्सारम्, बोधैकस्वभावस्य ज्ञानस्य विषयसम्बन्धमन्तरेण विशेषणान्तराभावात्। तस्मादन्यथोच्यते । युवस्थविरयोः शरीरावस्थाभेदेन तत्कारणतया कालसंयोगेऽनुमिते सति पश्चात्तयोः कालविशिष्टतावगतिः प्रत्येतुरेकत्वात्, प्रमाणान्तरोपनीतस्यापि विशेषणत्वाविरोधात्, यथा सुरभि चन्दनमिति । यथा वा मीमांसकानामघट भूतलमिति, घटादिषु तु मूर्त्तद्रव्यत्वेनावस्थाभेदेन वा शरीरवत् कालसम्बन्धेऽनुमिते तद्विशिष्टो युगपदादिप्रत्ययो जातः । पश्चात् कार्यत्वादिविप्रतिपन्नं प्रति काललिङ्गत्वमित्यनवद्यम् । की सत्ता न रहे तो 'प्रागसत्' शब्द के अर्थ उस अभाव विशेषार्थक असत् शब्द में विशेषण रूप प्राक्' शब्द का कुछ अर्थ ही नहीं होता है । इससे अनुत्पत्तिशील गगनादि और अत्यन्त असत् नरविषाणादि से उत्पत्तिशील घटादि में प्रागसत्त्व' रूप विशेष की सिद्धि नहीं होगी, अतः उन्हीं अनुत्पत्तिशील वस्तुओं की तरह और सभी वस्तुओं का उत्पादन असम्भव हो जाएगा। (प्र०) अप्रत्यक्ष काल रूप विशेषण से युक्त प्रागसत्त्व रूप विशेषण का ज्ञान ही कैसे होगा ? इस प्रश्न का समाधान कोई यों देते हैं कि प्रागसत्त्व की विशिष्ट प्रतीति में काल इन्द्रियों की तरह 'सामान्य' कारण है, दण्डादि की तरह विशेष नहीं। (उ० ) किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि बोधमात्र स्वभाव के ज्ञानों में विषयों के सम्बन्ध को छोड़कर परस्पर भेद का कोई प्रयोजक नहीं है, अतः उक्त आक्षेप का दूसरा समाधान कहते हैं। बालक और वृद्ध के शरीर की विभिन्न अवस्थाओं से शरीरभेद का अनुमान होता है। एवं इस विभिन्नशरीरता के कारण रूप से काल का अनुमान होता है। उन शरीरों में कालविशिष्टता की प्रतीति होती है। क्योंकि ज्ञाता एक ही है। प्रत्यक्षातिरिक्त प्रमाणों से ज्ञात अर्थों को भी विशेषण मान लेने में कोई बाधा नहीं है। जैसे कि 'सुरभि चन्दनम्' इत्यादि स्थलों में, अथवा मीमांसकों के अघटं भूतलम्' इत्यादि स्थलों में। धटादि द्रव्यों में उक्त शरीर की तरह, अथवा मूर्तद्रव्यत्व हेतु से काल का संयोग अनुमित होनेपर एककालिकत्व ( योगपद्य ) की प्रतीति होती है । उसके बाद काल रूप कारण उन प्रतीतियों से काल का अनुमान होता है। इस प्रकार काल की सत्ता के प्रसङ्ग में विरुद्ध मत रखनेवाले पुरुष को काल की सत्ता समझाने के लिए इन योगपद्यादि प्रतीतियों को हेतु मानने में कोई बाधा नहीं है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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