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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये सृष्टिसंहार न्यायकन्दली पूर्वकोटयनुपलब्धरसिद्धं पृथिव्यादिषु कार्यात्वमिति चेत् ? तदयुक्तम्, सावयवत्वात्, यत् सावयवं तत् कार्य यथा घटः, सावयवञ्च पृथिव्यादि, तस्मादेतदपि कार्यमेव । ननु व्याप्तिग्रहणादतुमानप्रवृत्तिः, कार्यत्वबुद्धिमत्पूर्वकत्वयोश्च व्याप्तिग्रहणमशक्यम्, घटादिषु कत्तु प्रतीतिकाले एवाङ्कुरादिषूत्पद्यमानेषु तदभावप्रतीतेः । न चाकुरत्वादीनामपि पक्षत्वमिति न्याय्यम्, गृहीतायां व्याप्तावनुमानप्रवृत्तिकाले प्रतिवाद्यपेक्षया पक्षादिप्रविभागः, इह तु सर्वदैव प्रतिपक्षप्रतीत्याक्रान्तत्वाद् व्याप्तिग्रहणमेव न सिद्धयतीत्युक्तम् । अत्र प्रतिविधीयतेयदि चैवं द्वैतानुपलम्भाद् व्ययाप्तिग्रहणाभानः, तदानीं मीमांसाभाष्याकृदभिमतं सामान्यतोदृष्टमादित्यगत्यनुमानमपि न सिद्धयति, तत्रापि देवदत्तगतिपूर्वकदेशान्तरप्राप्तिग्रहणकाल एक नक्षत्रादिषु देशान्तरप्राप्तिमात्रोपलम्भात् । अथ तेषु द्वारा उत्पन्न होते हैं, जैसे कि घटादि ! पृथिव्यादि चारों भूत भी कार्य हैं अतः वे सभी भी अवश्य ही ज्ञानी कर्ता के द्वारा उत्पन्न हैं । (प्र.) किसी भी प्रमाण से 'पूर्वकोटि' अर्थात् पक्षधर्मता का ज्ञान (अर्थात् पृथिव्यादि चारों महाभूतरूप पक्ष में कार्यत्व रूप हेतु का निश्चयात्मक ज्ञान) नहीं है, उक्त पक्ष में कार्यत्व हेतु सिद्ध नहीं होने के कारण कार्यत्व हेतु स्वरूपासिद्ध ) है। (उ०) प्रकृत में कार्यत्व हेतु स्वरूपासिद्ध नहीं है, क्योंकि पक्ष रूप चारों महाभूतों के सावयव होने के कारण उक्त सावयवत्व हेतु से उनमें कार्यत्व हेतु सिद्ध है, क्योंकि जितने भी सावयव हैं वे सभी कार्य हैं जैसे घटादि । पृथिव्यादि चारो महाभूत भी सावयव हैं, अतः वे भी अवश्य ही कार्य हैं। (प्र०) व्याप्तिज्ञान से ही अनुमान की प्रवृत्ति होती है, किन्तु उपलब्धिमत्कत्तृ - जन्यत्वरूप प्रकृत साध्य की व्याप्ति का ज्ञान कार्यत्वरूप हेतु में सम्भव नहीं है, क्योंकि घटादि में उक्त साध्य और हेतु के दोनों की प्रतीति-काल में ही अङ्कुरादि में उक्त साध्य के अभाव के साथ कार्यत्व हेतु के सामानाधिकरण्य की भी अबाधित प्रतीति होती है । (उ०) अङकुर तो पक्ष के अन्तर्गत है ? (५०) इस कथन में कोई सार नहीं है, क्योंकि व्याप्ति के ज्ञात हो जाने के बाद अनुमान की प्रवृत्ति होती है। उस प्रवृत्तिकाल में प्रतिवादी को आकाङ्क्षा के अनुसार पक्ष-साध्यादि विभाग प्रवृत्त होते हैं। यहाँ तो हेतु में साध्याभाव के सामानाधिकरण्य के ज्ञान से व्याप्ति का ज्ञान ही असम्भव है । (उ०) इसके समाधान में कहना है कि अगर इस प्रकार हेतु और साध्य के सामानाधिकरण्य की अनुपलब्धि से व्याप्ति का ज्ञान न हो तो मोमांसाभाष्यकार का अभिमत सामान्यतोदृष्ट अनुमान का सूर्य की गतिवाला उदाहरण ही असङ्गत हो जाएगा, क्योंकि जिस समय यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि 'देवदत्त का दूसरे देश के १. अर्थात् 'नहि पक्षे पक्षसमे वा व्यभिचारो दोषाधायकः' इस न्याय से पक्षान्तर्गत अङ्कुर में व्यभिचार का उद्भावन अनुमिति का प्रतिरोध नहीं कर सकता। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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