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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १३५ प्रकरणम्] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली देशविप्रकर्षेणापि गतेरनुपलब्धौ सम्भवन्त्यां न तया व्याप्तिग्रहणहेतोनिरुपाधिप्रवृत्तस्य भूयोदर्शनस्य प्रतिरोधः, तुल्यकक्ष्यत्वाभावात् । एवञ्चेत्, अत्राशरीरत्वेनाभ्युपेतस्य कर्तुः स्वरूपविप्रकर्षणाप्यकुरादिष्वनुपलम्भसम्भवान्न तेन निरुपाधिप्रवृत्तस्य भूयोदर्शनस्य सामर्थ्यमुपहन्यत इति समानम् । अपि च भोः ! किमनुमानेन कर्तृ मात्रं साध्यते ? पृथिव्यादिनिर्माणसमर्थो वा? कर्तृ मात्रसाधने तावदभिप्रेतासिद्धिः, नास्मदादिसदृशः कर्ताऽभिप्रेतो भवताम्, न च तेनेदं पृथिव्यादिकार्य्यमर्वाग्दृशा शक्यनिर्माणम्, पृथिव्यादिनिर्माणसमर्थस्तु कर्ता न सिद्धयत्यनन्वयात्, अन्वयबलेन हि दृष्टान्तदृष्टकर्तृ सदृशः सिद्धयतीति । नायं प्रसङ्गः, कर्तृ विशेषस्याप्रसाधनात्, व्याप्तिसामर्थ्याद् बुद्धिमत्पूर्वकत्वे सामान्ये साथ सम्बन्ध गति से उत्पन्न होता हैं, उसी समय नक्षत्रों में केवल दूसरे देशों के साथ सम्बन्ध का ही ज्ञान होता है। इसके लिए अगर यह उत्तर दिया जा सकता है कि नक्षत्र चूकि बहुत दूर है, अत: उनमें दूसरे देशों के साथ सम्बन्ध का ज्ञान होने पर भी गति का ज्ञान नहीं होता है। यहाँ गति की अनुपलब्धि से व्याप्तिज्ञान के कारणरूप उपाधि से शून्य (गति और देशान्तरसञ्चार ) के भूयोदर्शन का प्रतिरोध नहीं हो सकता, क्योंकि (प्रकृत गति की अनुपलब्धि और प्रकृत भूयोदर्शन ) दोनों समान कक्षा के नहीं हैं । ( उ०) तो फिर प्रस्तुत विषय में भी कहा जा सकता है कि जिस कार्य का कर्ता शरीरी पुरुष होता है, उस कर्ता के शरीर में प्रत्यक्ष की योग्यता रहने के कारण उसके कार्यों में भी कर्तृ जन्यत्व की प्रतीति होती है, किन्तु प्रस्तुत महाभूतादि की सृष्टि के कर्ता महेश्वर को तो शरीर नहीं है, अतः ईश्वररूप-कर्तृजन्य अङ्कुरादि कार्यों में कर्तृजन्यत्व की प्रतीति नहीं होती है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अङ्कुरादि कार्यों में कर्तृजन्यत्व है ही नहीं। तस्मात् कोई अनुपपत्ति नहीं है। (प्र.) और भी बात है—अनुमान से आप क्या साधन करना चाहते हैं ? केवल कर्ता ? या पृथिवी प्रभृति उक्त महाभूतों के निर्माण से समर्थ कर्ता ? केवल कर्ता की सिद्धि से तो आपका अभीष्ट सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि हम लोगों के समान अल्पज्ञ कर्ता की सिद्धि आपको उस अनुमान से इष्ट नहीं है, एवं हम लोगों के समान अल्पज्ञ पुरुष पृथिव्यादि का निर्माण कर भी नहीं सकता है। उक्त अनुमान से पृथिव्यादि के निर्माण में समर्थ कर्ता की सिद्धि हो ही नहीं सकती, क्योंकि इस विशेष प्रकार का कर्तृजन्यत्व कहीं उपलब्ध नहीं है। अन्वय ( हेतु में साध्य का सामानाधिकरण्य) के बल से दृष्टान्त में जिस प्रकार के कर्तृजन्यत्व रूप साध्य की उपलब्धि होगी, पक्ष में भी उसी प्रकार के साध्य की सिद्धि होगी। घटादि रूप दृष्टान्तों में तो पृथिव्यादि निर्माण में समर्थ कर्ता का जन्यत्व उपलब्ध नहीं है। (उ० ) उक्त आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि विशेष प्रकार के कर्ता की सिद्धि अनुमान से इष्ट नहीं है, क्योंकि व्याप्ति के बल से पृथिव्यादि के किसी बुद्धियुक्त कर्ता की सिद्धि हो For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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