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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १२८ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये सृष्टिसंहार प्रशस्तपादभाष्यम् प्रक्रमेण महान् वायुः समुत्पनो नभसि दोधूयमानस्तिष्ठति। तदनन्तरं तस्मिन्नेव वायावाप्येभ्यः परमाणुभ्यस्तेनैव क्रमेण महान् सलिलनिधिउत्पन्न परमाणुओं के संयोगो के द्वारा द्वयणुकादि क्रम से महान् वायु उत्पन्न होकर आकाश में अत्यन्त वेग से युक्त होकर रहता है । उसके बाद उसी क्रम से उसी वायु में जलीय परमाणुओं से उत्पन्न महान् जलराशि सर्वत्र प्लावित होकर रहता है। न्यायकन्दली कदाचित् सृष्टयर्था भवति । यदा संहारार्था तदा तदनुरोधाददृष्टानां वृत्तिनिरोध औदासीन्यलक्षणो जायते। यदा त्वसौ सृष्टया भवेत् तदा वृत्तिलाभः स्वकार्यजननं प्रति व्यापारो भवति । वृत्तिर्लब्धा यैस्ते वृत्तिलब्धा इति । आहितान्यादित्वान्निष्ठायाः पूर्वनिपातः, दन्तजात इति यथा। सर्वात्मगताश्च वृत्तिलब्धाश्चादृष्टाश्च तानपेक्षन्ते ये तत्संयोगा आत्माणुसंयोगास्तेभ्यः पवनपरमाणुषु कर्माण्युत्पद्यन्ते । पवनपरमाणवः समवायिकारणम् । लब्धवृत्त्यदृष्टवदात्मपरमाणुसंयोगोऽसमवायिकारणम् । अदृष्टं निमित्तकारणम् । एवं कर्मोत्पत्तौ तेषां पवनपरमाणूनां परस्परसंयोगा जायन्ते। तत्संयोगेभ्यश्च वयणुकान्युत्पद्यन्ते । तदनु त्र्यणुकानीत्यनेन क्रमेण महान् वायुः समुत्पद्यमानो नभसि आकाशे दोधूयमानः क्वचिदप्रतिहतत्वाद् वेगातिशययुक्तस्तिष्ठति । के अदृष्ट कार्यक्षम हो जाते हैं और अपने-अपने कार्यों के प्रति व्यापारशील हो जाते हैं। जब ईश्वर की इच्छा संहार का कारण होती है, तब अदृष्टों में कार्यों के प्रति उदासी. नता रूप 'वृत्तिनिरोध' हो जाता है । 'वृत्तिलब्धा यैस्ते वृत्तिलब्धाः' इसी भाशय का समास 'वृत्तिलब्ध' पद में है। यद्यपि निष्ठाप्रत्ययान्त 'लब्ध' शब्द का प्रयोग पहिले चाहिए, किन्तु आहिताग्नि गण में पठित शब्द के साथ समस्त निष्ठाप्रत्ययान्तपद का पूर्वप्रयोग विकल्प से होता है, जैसे कि 'दन्तजातः' इत्यादि स्थलों में, तदनुसार ही 'वृत्तिलब्ध' शब्द का प्रयोग भी है । 'सर्वात्मगतवृत्तिलब्धादृष्टापेक्षेभ्यः' इस समस्त महावाक्य का विग्रहवाक्य यों है कि 'सर्वात्मगताच, वृत्तिलब्धाश्च, अदृष्टाश्च तानपेक्षन्ते ये, तत्संयोगास्तेभ्यः । 'तत्संयोग' अर्थात् आत्मा और अणुओं का संयोग । इन संयोगों से वायवीय परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न होती है। इस क्रिया के समवायिकारण हैं वायु के परमाणु, असमवायिकारण हैं वृत्तिलब्ध अदृष्ट से युक्त आत्मा और परमाणुओं का संयोग, एवं अदृष्ट निमित्तकारण है । इस प्रकार परमाणुओं में क्रिया की उत्पत्ति हो जाने पर इन वायवीय परमाणुओं में फिर संयोगों की उत्पत्ति होती है। इन संयोगों से द्वयणुकों की उत्पत्ति होती है, उसके बाद त्र्यसरेणु की। इस क्रम से महान् वाय उत्पन्न For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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