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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir -१२७ प्राणिनां भोगभूतये महेश्वर सिसृक्षानन्तरं ततः पुनः सर्वात्मगतवृत्तिलब्धादृष्टापेक्षेभ्यस्तत्संयोगेभ्य: पवनपरमाणुषु कर्मोत्पत्तौ तेषां परस्परसंयोगेभ्यो द्वयणुकादि फिर जीवों के भोग सम्पादन के लिए महेश्वर को सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न होती है । तब सभी आत्माओं के अदृष्ट की कुण्ठित शक्ति कार्यों के उत्पादन के लिए फिर से उन्मुख हो जाती है। कार्य में उन्मुख अदृष्ट एवं आत्मा और परमाओं के संयोग से वायु के परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न होती है । फिर क्रिया से न्यायकन्दली ब्रह्मणो वर्षशतमेवावतिष्ठन्ते । दिगादयोऽपि तिष्ठन्ति नित्यत्वात् । किन्त्वा - त्मनामदृष्टवशात् परमाणवः पुनर्नारप्स्यन्त इति । प्राधान्याददृष्टवशादात्मपरमाण्ववस्थान संकीर्त्तनम् । एवं संहारक्रमं प्रतिपाद्य सृष्टिक्रमं प्रतिपादयन्नाह - ततः पुनरिति । यद्यपि तदा आत्मनां प्राणसम्बन्धो नास्ति, तथापि प्राणिन इत्युक्तं योग्यत्वात् । तेषां भोगभूतये सुखदुःखानुभवोत्पत्तये महेश्वरस्य सिसृक्षा सर्जनेच्छा जायते । तदनन्तरं सर्वेष्वात्मसु गता अदृष्टा वृत्तिं लभन्ते । यद्यपि युगपदुत्पद्य - मानासंख्येयकार्योत्पत्तौ व्याप्रियमाणा दिगादिवनित्यत्वादेकैवेश्वरेच्छा क्रियाशक्तिरूपा, तथाप्येषा तत्तत्कालविशेषसहकारिप्राप्तौ कदाचित् संहारार्था भवति, सौ वर्षों तक रहते हैं । यद्यपि दिगादि पदार्थ भी नित्य होने के कारण उस समय रहते ही हैं, तथापि जीवों के अदृष्ट (की अक्षमता ) से ही परमाणु अपने काम को नहीं करते । अतः प्रधान होने के कारण अदृष्टों से युक्त जीव और परमाणुओं की अवस्थिति का ही वर्णन किया है । For Private And Personal इस प्रकार संहारक्रम का प्रतिपादन करने के लिए 'ततः पुनः' इत्यादि लिखते हैं । यद्यपि उस समय के जीवों में प्राण का सम्बन्ध नहीं है, तथापि प्राणसम्बन्ध की योग्यता के कारण 'प्राणिनः ' पद का प्रयोग किया है । प्राणियों की 'भोगभूति' अर्थात् सुख और दुःख के अनुभव के लिए महेश्वर की 'सिसृक्षा' अर्थात् सृष्टि करने की इच्छा होती है । इसके बाद जीवों के सभी अदृष्टों में कार्यों को उत्पन्न करने की क्षमता आ जाती है । यद्यपि ईश्वर की असंख्य कार्यों की उत्पत्ति में व्यापृत इच्छा उनकी क्रियाशक्ति का रूप है, एवं दिगादि पदार्थों की तरह नित्य होने के कारण एक ही है, फिर भी तत्तत्काल रूप सहकारी को पाकर वही कभी संहार का कारण होती और कभी सृष्टि का कारण होती है । जब वह सृष्टि का कारण होती हैं, तब जीवों
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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