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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२६ www.kobatirth.org न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ मध्ये सृष्टिसंहार पवनानामपि महाभृतानामनेनैव क्रमेणोत्तरस्मिन्नुत्तरस्मिन् सति पूर्वस्य पूर्वस्य विनाशः । ततः प्रविभक्ताः परमाणवोऽवतिष्ठन्ते धम्मधर्मसंस्कारानुविद्धा आत्मानस्तावन्तमेव कालम् | हुए पहिले पहिले का विनाश होता है । उसके बाद उतने ही समय तक ( ब्राह्म मान से सौ वर्ष पर्यन्त ) अपने में परस्पर असम्बद्ध परमाणु एवं धर्म, अधर्म और संस्कार से युक्त जीव ही रह जाते हैं । न्यायकन्दली For Private And Personal इत्येवं सर्वत्र विषयप्रवृत्तौ न शरीरादीनां युगपदभावो घटते" इति, तदनेन पराहतम् - अदृष्टानां वृत्तिप्रतिबन्ध इति । ब्रह्मणोऽपवर्गकाले निशीत्युक्तम् । तत्र सर्वप्राणिनां प्रबोधप्रत्यस्तमयसाधर्म्येणोपचारात् । महाभूतानामप्येवं विनाश इत्याह- तथेति । यथा शरीरेन्द्रियाणामापरमाण्वन्तो विनाशस्तथा महाभूतानामप्यनेनैव क्रमेणेति । परमाणुक्रिया विभागादिक्रमेणोत्तरस्मिन्नुत्तरस्मिन् सति पूर्वस्य पूर्वस्य विनाश इति । जले तिष्ठति पूर्वं पृथिव्या विनाशः, तेजसि तिष्ठति जलस्य, वायौं तिष्ठति तेजस इत्यर्थः । ततः प्रविभक्ताः परमाणवोऽवतिष्ठन्ते धर्माधिभावनाख्यसंस्कारैरनुविद्धा उपगृहीताश्वात्मानस्तावन्तमेव कालं फल के प्रति उन्मुख अदृष्ट से भोग करता ही रहेगा, फल देने की उन्मुखता ही उत्पन्न होगी । इा प्रकार के अथवा किसी अदृष्ट में आगे सभी कालों के विषयों में प्रवृत्त रहने के कारण शरीरादि सभी विषयों का विनाश एक काल में नहीं हो सकता, किन्तु 'अदृष्टानां वृत्तिप्रतिबन्धे' इस वाक्य से उक्त आपत्ति का समाधान हो जाता है, क्योंकि ईश्वर की संहारेच्छा से सभी अदृष्टों की कार्यजननशक्ति एक ही समय में कुण्ठित हो जाएगी । 'निशि' शब्द से लक्षणावृत्ति के द्वारा ब्रह्मा के मोक्ष का है । जैसे कि रात में सोने पर प्राणियों के जाग्रत अवस्था के हो जाते हैं, उसी तरह उस समय भी जीवों के सभी सुख दुःखादि नष्ट हो जाते काल कहा गया सभी सुखदुःखादि नष्ट और इन्द्रियों की तरह और भी कहते हैं । अर्थात् जैसे शरीरों हैं, यही सादृश्य इस लक्षणोवृत्ति का मूल है | शरीरों सभी भूत नष्ट होते हैं, यही ' तथा ' इत्यादि पङ्क्ति से और इन्द्रियों का परमाणुपर्यन्त विनाश होता हैं, उसी प्रकार और उसी क्रम से अन्य महाभूतों का भी विनाश होता है । पहिले परमाणुओं में क्रिया, फिर उनमें परस्पर विभाग इत्यादि कथित क्रम से पूर्व पूर्व का विनाश होता है, अर्थात् जल के रहते हुए पृथिवी का विनाश, एवं तेज के रहते हुए जल का विनाश और वायु के रहते हुए तेज का विनाश होता है। इसके बाद परस्पर असम्बद्ध परमाणु, एवं धर्म, अधर्म भावनाख्य संस्कार इन तीन गुणों से युक्त जीव ये ही 'उतने समय तक' अर्थात् ब्रह्मा के
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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