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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकरणम् ] Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् रुत्पन्नः पोप्लूयमानस्तिष्ठति । तदनन्तरं तस्मिन्नेव पार्थिवेभ्यः परमाणुयो महापृथिवी संहतावतिष्ठते । तदनन्तरं तस्मिन्नेव महोदधौ तेजसेभ्योऽणुभ्यो द्वणुकादिप्रक्रमेणोत्पन्नो महाँस्तेजोराशिः केनचिदन भिभूतत्वाद्देदीप्यमानस्तिष्ठति । एवं समुत्पन्नेषु मात्रात् तैजसेभ्योऽणुभ्यः महदण्डइसके बाद इसी जलनिधि में उसी क्रम से पार्थिव परमाणुओं के द्वारा कठिन स्वभाव का पार्थिव द्रव्य उत्पन्न होकर रहता है । एवं उसी जलनिधि में तैजस परमाणुओं से महान् तेज उत्पन्न होकर किसी से प्रतिहत न होने के कारण अत्यन्त दीप्ति से युक्त होकर विद्यमान होता है । चतुर्षु महाभूतेषु महेश्वरस्याभिध्यानपार्थिव परमाणुसहितेभ्यो इस प्रकार चारों महाभूतों के उत्पन्न होने पर केवल महेश्वर के संकल्प से ही पार्थिव परमाणुओं की सहायता से तेजस परमाणुओं से महान् ( हिरण्मय) न्यायकन्दली १२९ तदनन्तरं तस्मिन्नेव वायावाप्येभ्यः परमाणुभ्य:, तेनैव क्रमेण द्वचणुकादिक्रमेण, महान् सलिलनिधिरुत्पन्नः पोप्लूयमानः प्रतिरोधकाभावात् सर्वत्र प्लवमानस्तिष्ठति । तदनन्तरं जलनिधेरुत्पत्त्यनन्तरम्, तस्मिन्नेव जलधौ पार्थिवेभ्यः परमाणुभ्यो महापृथिवी संहता स्थिरस्वभावावतिष्ठते । तदनन्तरं तस्मिन्नेव महोदधौ तैजसेभ्योऽणुभ्यो द्वयणुकादिप्रक्रमेणात्पन्नो महाँस्तेजोराशिः केनचिदनभिभूतत्वाद्देदीप्यमानस्तिष्ठति । यद्यपि पयःपावकयोः स्वाभाविको विरोधस्तथाप्यदृष्टव शेनाधाराधेयभावो नानुपपन्नः । For Private And Personal होकर किसी से बाधित न होने के कारण अत्यन्त वेग से युक्त होकर रहता है । उसी महान् वायु में जलीय परमाणुओं से 'उसी क्रम से' अर्थात् द्वयणुकादि क्रम से जल का महान् निधि उत्पन्न होकर किसी से प्रतिरुद्ध न होने के कारण सर्वत्र प्लावित रहता है । तदनन्तर अर्थात् इस जलनिधि के उत्पन्न होने पर जल के उसी समुद्र में पार्थिव परमाणुओं से कठिन स्वभाव की महापृथिवी उत्पन्न होकर स्थित रहती है । तदनन्तर उसी जलनिधि में तैजस परमाणुओं से द्वयणुकादि क्रम से महान् तेज का समूह किसी से अभिभूत न होने के कारण अतिशय दीप्ति से युक्त होकर विद्यमान रहता है । यद्यपि जल और तेज इन दोनों मे स्वभावतः विरोध है, तथापि जीवों के अदृष्ट से उनमें भी आधाराधेयभाव होता है । १७
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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