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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ८० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये पृथिवी न्यायकन्दली एकस्य नित्यस्य चारम्भकत्वे कार्य्यस्य सततोत्पत्तिः स्यादपेक्षणीयाभावात्, अविनाशित्वञ्च प्रसज्येत, आश्रयविनाशस्यावयविभागस्य च विनाशहेतोरभावात् । त्रयाणामप्यारम्भकत्वमयुक्तम्, इह महत्कार्य्यद्रव्यस्योत्पत्तौ स्वपरिमाणापेक्षयाऽल्पपरिमाणस्य कार्यद्रव्यस्यैव सामर्थ्यदर्शनात् । त्र्यणुकं कार्य्यद्रव्येणैव जन्यते, महत्परिमाणत्वात्, घटवत्। एवं त्रयाणामेकस्य चारम्भकत्वे प्रतिक्षिप्ते द्वाभ्यामेव परमाणुभ्यामारभ्यते यत् तद्वयणुक मिति सिद्धम्। द्वयणुकर्बहुभिरारभ्यत इत्यपि नियमो न, द्वाभ्यां तस्याणुपरिमाणोत्पत्तौ कारणसद्भावेनाणुत्वोत्पत्तावारम्भवैयात, बहषु त्वनियमः । कदाचित् त्रिभिरारभ्यत इति त्र्यणुकमित्युच्यते, कदाचिच्चतुर्भिरारभ्यते, कदाचित् पञ्चभिरिति यथेष्टं कल्पना । न च कार्य्यस्य व्यर्थता, यथा यथा कारणसङ्घयाबाहुल्यं तथा तथा महत्परिमाणतारतम्योपलम्भात् । न चैवं सति द्वयणकानामेव घटारम्भकत्वप्रसक्तिः, घटस्य भङ्गेऽल्पतरतमादिभागदर्शनेन तथैवारम्भकल्पनात् तदेवं द्वयणुकादिप्रक्रमेण क्रियते कार्य्यलक्षणा पृथिवी। से कार्य की उत्पत्ति मानें तो कार्य का विनाश ही असम्भव होगा, क्योंकि कार्यों का नाश दो ही वस्तुओं से सम्भव है, एक तो आश्रय के नाश से (समवायिकारण के नाश से) दूसरे अवयवों के विभाग से (फलतः असमवायिकारण के नाश से), ये दोनों ही प्रकार नित्य वस्तु से कार्यों की उत्पत्ति मान लेने पर असम्भव हैं । तीन परमाणु भी मिलकर कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकते, क्योंकि तीन परमाणुओं से जो बनेगा वह अवश्य ही महान् होगा। महत्परिमाण के कार्य द्रव्य का यह स्वभाव सर्वत्र देखा जाता है कि उसकी उत्पत्ति उसके परिमाण से न्यून परिमाणवाले कार्यद्रव्यों से होती है। तस्मात् त्र्यसरेणु कार्यद्रव्यों से उत्पन्न होता है, क्योंकि उसमें महापरिमाण है, जैसे कि घटादि । इससे एक परमाणु से और तीन परमाणुओं से कार्य की उत्पत्ति खण्डित हो जाने पर यह सिद्ध होता है कि दो परमाणुओं से ही कार्य की उत्पत्ति होती है, एवं उस कार्य का नाम द्वयणुक है। यह भी निश्चित ही है कि दो से अधिक द्वयणुकों से ही कार्य की उत्पत्ति हो सकती है, दो द्वथणुकों से नहीं, क्योंकि दो द्वयणुकों से उत्पन्न कार्य का परिमाण 'अणु' ही होगा, क्योंकि उसके परिमाण में अणुपरिमाण को ही उत्पन्न करने का सामर्थ्य है। दो द्वथणुकों से जिस अणुपरिमाणवाले द्रव्य की उत्पत्ति होगी उसका उत्पन्न होना ही व्यर्थ है। दो से अधिक कितने द्वथणुकों से कार्य की उत्पत्ति होती है, इसका कोई नियम नहीं है, कभी तीन द्वयणुकों से ही कार्योत्पत्ति होती है, कभी चार या पाँच द्वयणुकों से कार्योत्पत्ति की यथेच्छ कल्पना की जा सकती है। इस पक्ष में कार्योत्पत्ति की व्यर्थता नहीं है, क्योंकि जिस क्रम से कारणों की संख्या में अधिकता होगी, उसी क्रम से उनके कार्यों में परिमाण For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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