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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] ७६ भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली स्वभावायाः पृथिव्याः सत्त्वे किं प्रमाणम् ? अनुमानम्, अणुपरिमाणतारतम्यां क्वचिद् विश्रान्तं परिमाणतारतम्यत्वाद् महत्परिमाणतारतम्यवत्, यत्रेदं विश्रान्तं यतः परमणुर्नास्ति स परमाणुः। अत एव नित्यो द्रव्यत्वे सत्यनवयवत्वादाकाशवत् अथायं सावयवो न तर्हि परमाणुः, का परिमाणापेक्षया तदवयवपरिमाणस्य लोकेऽल्पीयस्त्वप्रतीतेः, यश्च तस्यावयवः स परमाणुर्भविष्यति । अथ सोऽपि न भवति, अवयवान्तरसद्भावात् ? एवं तीनवस्था, ततश्चावयविनामल्पतरतमादिभावो न स्यात्, सर्वेषामनन्तकारणजन्यत्वाविशेषेण परिमाणप्रकर्षाप्रकर्षहेतोः कारणसङ्ख्याभूयस्त्वाभूयस्त्वयोरसम्भवात् । अस्ति तावदयं परिमाणभेदः, तस्मादणुपरिमाणं क्वचिन्निरतिशयमिति सिद्धो नित्यः परमाणुः। स चैको नारम्भकः, लिए लिखते हैं कि 'परमाणुलक्षणा नित्या, कार्यलक्षणा त्वनित्या' इस वाक्य के दोनों ही 'लक्षण' शब्द 'स्वभाव' के बोधक हैं। (प्र०) परमाणु स्वभाव की पृथिवी को सत्ता में प्रमाण क्या है ? (उ०) यह अनुमान प्रमाण है कि अणुपरिमाण का न्यूनाधिक भाव भी कहीं समाप्त होता है, क्योंकि वह भी परिमाण का न्यूनाधिक भाव है, जैसे कि महत्परिमाण का न्यूनाधिक भाव । अणुपरिमाण का यह तारतम्य जहाँ समाप्त होता है, चूंकि उससे छोटा कोई और अणु नहीं है, अतः वही परमाणु है । अतएव वह नित्य भी है, क्योंकि वह द्रव्य होने पर भी सावयव नहीं है जैसे कि आकाश । अगर वह सावयव है तो फिर वह परमाणु नहीं है, क्योंकि यह लोक में सिद्ध है कि कार्य के परिमाण से कारण का परिमाण अल्प होता है। फिर वही कारणीभूत द्रव्य परमाणु कहलायेगा। यह परमाणु भी नहीं कहला सकता, अगर इसके छोटे अवयव हैं। इस प्रकार (परमाणु को सावयव मानने में) अनवस्था होगी, एवं इस अनवस्था से अवयवियों में परस्पर छोटे बड़े के भेद ही उठ जायेंगे। कोई अवयवी किसी दूसरे अवयवी से बड़ा इसलिए है कि उसका निर्माण उस छोठे अवयवी के निर्मापक अवयवों से अधिक संख्यक अवयवों से होता है। कोई अवयवी किसी अवयवी से छोटा इसलिए है कि उस अवयवी के निर्मापक अवयवों से अल्पसंख्यक अवयवों से उसका निर्माण होता है। अगर सभी को सावयव मान लें तो सभी अवयवियों को असंख्य अवयवों से निर्मित मानना पड़ेगा। फिर अवयवियों में परस्पर छोटे बड़े का व्यवहार ही किससे होगा ? किन्तु अवयवियों में परस्पर छोटे बड़े का भेद सर्वजनीन अनुभव से सिद्ध है। तस्मात् अणुपरिमाण का न्यूनाधिक भाव अवश्य ही कहीं समाप्त होता है । जहाँ यह समाप्त होता है वही 'नित्य परमाणु' है। उन परमाणुओं में से किसी एक से ही कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इससे सभी समय कार्योत्पत्ति की आपत्ति होगो, कारण कि उसे दूसरे को अपेक्षा नहीं है । अगर एक ही नित्य वस्तु For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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