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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir مان द्वितन्तुके रूपानुत्पत्तिरेकैकस्यावयवरूपस्यानारम्भकत्वात् । अथ मतम् - तत्रो - भाभ्यामेकं चित्रं रूपमारभ्यते, तदन्यत्रापि तथा स्यादविशेषात् । विवादाध्यासितं चित्रद्रव्यमेकरूपद्रव्यसम्बन्धि द्रव्यत्वादितरद्रव्यवत्, तद्गतं रूपमेकमवयविरूपत्वाद् इतरावयविद्रव्यरूपवत् । रसः षड्विध इत्यत्रापि पूर्ववद् व्याख्यानम् । यद् गन्धस्य भेदनिरूपणं तत् पारम्पर्येण पृथिव्या अपि स्वरूपकथनमित्यभिप्रायेणाह - गन्धो द्विविध इति । तदेव द्वैविध्यं दर्शयति - सुरभिरसुरभिश्चेति । असुरभिरिति सुरभिगन्धविरुद्ध प्रतिद्रव्यादिसमवेतं प्रतिकूलसंवेदनीयं गन्धान्तरम्, न तु तदभावमात्रम्, विधिरूपेण सातिशयतया च संवेदनात् । उपेक्षणीयस्तु गन्धोऽनुद्भूतसुरभ्यसुरभिप्रभेद एवेति पृथङ्नोच्यते । अथवा सोऽप्यसुरभिरेव, सुरभिगन्धादन्योऽसुरभिरिति व्युत्पादनात् । सूक्ष्म वस्तु के रूप ऐसा नहीं होता है । परम नहीं देखे जाते। जिसका रूप अच्छी तरह देखा जाता है उसके अवयवों के रूप भी देखे हो जाते हैं । जो कोई 'एक ही अवयवी में रहनेवाले अव्याप्यवृत्ति अनेक रूप ही चित्र रूप है' ऐसा मानते हैं उनके मत में नील और पीत रूप के दो तन्तुओं से भारब्ध पट में रूप की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि अवयव का एक रूप तो कारण नहीं है ( प्र . ) वहाँ दोनों रूप मिलकर एक चित्र रूप का उत्पादन करते हैं । (उ.) तो फिर और स्थानों में भी वही होगा, क्योंकि स्थिति में कोई अन्तर नहीं है । (१) विवाद का विषय यह चित्र द्रव्य एक रूप के द्रव्य का सम्बन्धी है, क्योंकि वह द्रव्य है । (२) उसमें रहनेवाला रूप एक ही है, क्योंकि वह अवयवी का रूप है । जैसे कि और अवयवी द्रव्यों का रूप । For Private And Personal इस पहिले स्वरूप का 'रसः षड् विध:' इस वाक्य की व्याख्या भी ' रुपमनेक प्रकारकम्' वाक्य की तरह है । गन्ध के भेद का निरूपण परम्परा से पृथिवी के ही निरूपण है, इसी अभिप्राय से 'गन्धो द्विविधः' इत्यादि वाक्य लिखते हैं । यही दोनों प्रकार 'सुरभिरसुरभिश्च' इस वाक्य से लिखते हैं। 'असुरभि' शब्द का अर्थ सुगन्ध के विरोधी किसी विशेष द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाला अनभीष्ट रूप से ज्ञात होनेवाला दूसरा गन्ध है, केवल सुरभि का अभाव नहीं, क्योंकि भावत्व रूप से और न्यूनाधिक भाव से उसका भान होता है । उपेक्षणीय गन्ध अनुभूत सुरभि और धनु - भूत असुरभि का ही प्रभेद है, अतः उसे अलग से नहीं कहा गया । अथवा उपेक्षणीय गन्ध असुरभि' शब्द का ही अर्थ है, क्योंकि 'असुरभि' शब्द का ऐसा अर्थ है कि सुरभिगन्धादन्यो गन्धः' अर्थात् सुरभि गन्ध से भिन्न गन्ध ही 'असुरभि' शब्द का अर्थ है ।
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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