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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७६ www.kobatirth.org न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ द्रव्ये पृथिवी विविधकारणस्वभावानुगमाच्छ्यामशुक्लहरितात्मकमेव स्यात्, चित्रमिति च व्यपदिश्यते । विरोधादेकमनेकस्वभावमयुक्तमिति चेत् ? तथा च प्रावादुकप्रवादः -- “एकञ्च चित्रञ्चेत्येतत्तच्च चित्रतरं ततः" इति । को विरोधो नीलादीनाम्, न तावदितरेतराभावात्मकः, भावस्वभावानुगमादन्योन्यसंश्रयापत्तेश्च । स्वरूपान्यत्वं विरोध इति चेत् ? सत्यमस्त्येव । तथापि चित्रात्मनो रूपस्य नायुक्तता, विचित्रकारणसामर्थ्यभाविनस्तस्य सर्वलोकप्रसिद्धेन प्रत्यक्षेणैवोपपादितत्वात् । अचित्रे पार्श्वे पटस्येव तदाश्रयस्य चित्ररूपस्य ग्रहणप्रसङ्गस्तस्यैकत्वादिति चेन्न, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां समधिगतसामर्थ्यस्यावयवनानारूपदर्शनस्यापि चित्ररूपग्रहणहेतुत्वात्, तस्थ च पाश्र्वान्तरेऽभावात् । नन्वेवं तहि नानारूपैर्द्वयणुकैरारब्धे द्रव्ये न चित्ररूपग्रहणम्, तदवयवरूपग्रहणाभावात् ? को नामाह न तथेति नहि परमसूक्ष्मस्य वस्तुनो रूपं विविच्य गृह्यते, यस्य तु विविच्य गृह्यते तस्यावयवरूपाण्यपि गृह्यन्ते । यस्त्वव्यापकानि बहूनि चित्ररूपाणीति मन्यते, तस्य नीलपीताभ्यामारब्धे For Private And Personal प्रत्येक में भावत्व दोष भी होगा । के सभी रूप मिलकर ही उस अवयवी में रूप को उत्पन्न करते हैं । इस अवयवी में उत्पन्न होनेवाला वह एक रूप कारणों के अनेक स्वभाव से श्याम शुक्ल और हरित स्वरूप ही होगा जो 'चित्र' शब्द से व्यवहृत होता है । ( प्र०) विरोध के कारण एक वस्तु को अनेक स्वभाव का मानना ठीक नहीं है । ( उ० ) लोक में यह प्रसिद्ध है कि 'चित्र' रूप एक है और यह उस चित्र रूप से चित्रतर' है । फिर नीलादि रूपों में परस्पर विरोध ही क्या है ? क्योंकि वे परस्पर अभाव स्वरूप नहीं हैं, क्योंकि उनमें से की प्रतीति होती है एवं परस्पराभाव रूप मानने में अन्योन्याश्रय ( प्र . ) एक में दूसरे की स्वरूपभिन्नता ही दोनों में विरोध है ? (उ.) यह विरोध ठीक है, किन्तु इससे चित्ररूप की अत्युक्तता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि विलक्षण कारणों से उत्पन्न चित्र रूप सर्वजनीन प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध है । ( प्र . ) जिस पट के कुछ अंश बिलकुल सफेद हैं, और कुछ अंश चित्र रूप के हैं, उसमें शुक्ल रूप के ग्रहण से जैसे पट का ग्रहण होता है वैसे ही चित्र रूप का भी ग्रहण होना चाहिए, क्योंकि प्रकृत में शुक्लरूपाभय पट और चित्ररूपाश्रय पट दोनों एक ही हैं ? ( उ ) कारणता अन्वय और व्यतिरेक इन दोनों के अधीन है, ये दोनों जिसे जिसका कारण सिद्ध करेंगे वही उसका कारण होगा । तदनुसार चित्र रूप के प्रत्यक्ष में उसके आश्रय के अवयवों का प्रत्यक्ष भी कारण है । वह सफेदवाले अंश में नहीं है (इसी से वहाँ चित्र रूप का प्रत्यक्ष नहीं होता है) । ( प्र . ) तो फिर नाना रूप के द्वद्यणुकों से बने हुए द्रव्य चित्र रूप का प्रत्यक्ष नहीं होगा ? क्योंकि उत्पन्न होनेवाले द्रव्य के द्वथणुक रूप अवयव अतीन्द्रिय हैं, अतः उनके रूपों का ज्ञान सम्भव नहीं है । ( उ ) कौन कहता है कि
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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