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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् रूपरसगन्धस्पर्शसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वगुरुत्वद्रवत्वसंस्कारवती । एते च गुणविनिवेशाधिकारे रूपादयो गुण यह पृथिवी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व,संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व गुरुत्व, द्रवत्व और संस्कार इन चौदह गुणों से युक्त है । ये रूपादि गुणविशेष न्यायकन्दली धर्मः कथ्यते, या लोके पृथिवीति व्यपदिश्यते सा पृथिवी, पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात् । यथाहोद्योतकर:--"समानासमानजातीयव्यवच्छेदो लक्षणार्थः" (न्या० वा०) एतेनैतदपि प्रत्पुक्तम्, प्रसिद्धाश्चेत् पदार्था न लक्षणीयाः, अप्रसिद्धा नितरामशक्यत्वात्, स्वरूपेणावगतस्यापि व्यवहारविशेषप्रतिपादनार्थं सामान्येन प्रसिद्ध स्य विशेषावगमार्थञ्च लक्षणप्रवृत्तेः । नन्वेवं सत्यनवस्था, लक्ष्यवल्लक्षणस्याप्यन्ततो लक्षणीयत्वादिति चेन्न, अप्रतीतो लक्षणापेक्षित्वात्, सर्वत्र चाप्रतीत्यभावात् तथा हि--शिरसा पादेन गवामनुबध्नन्ति विद्वांसः, न पुनरेतावप्यन्यतः समीक्षन्ते । यस्तु सर्वथैवाप्रतिपन्नः, न तं प्रत्युपदेशः, तस्य बालमूकादिवदनधिकारात् ।। ____ गन्धसहचरितचतुर्दशगुणवत्त्वमपि पृथिव्या इतरेभ्यो वैधर्म्यमिति प्रतिपादयन्नाह--रूपरसगन्धेति । अत्र द्वन्द्वानन्तरं मतुप्प्रत्यययोगात् प्रत्येक के द्वारा उसे समझाने के लिए 'पथिवीत्वाभिसम्बन्धात्' इत्यादि वाक्य कहते हैं । जिसका व्यवहार लोक में 'पृथिवी' शब्द से होता है, वही पृथिवी है, क्योंकि उसमें पृथिवीत्व का सम्बन्ध है। जैसा कि उद्योतकर ने कहा है कि लक्ष्य को उसके समानजातीयों से एवं असमानजातीयों से भिन्न रूप में समझाना ही लक्षण का काम है। इससे यह आक्षेप भी खण्डित हो जाता है कि पदार्थ अगर प्रसिद्ध हैं तो फिर उनका लक्षण करना ही व्यर्थ है । अगर अप्रसिद्ध हैं तब तो और भी व्यर्थ है । स्वरूपतः ज्ञात वस्तुओं के विशेष व्यवहार के लिए एवं सामान्यतः प्रसिद्ध वस्तुओं के विशेष रूप से जानने के लिए ही लक्षण की प्रवृत्ति होती है। (प्र०) इस प्रकार तो अनवस्था होगी क्योंकि उन लक्षणों को विशेष रूप से जानने के लिए भी दूसरे लक्षणों की आवश्यकता होगी, उनके विशेष ज्ञान के लिए फिर तीसरे की । (उ०) सम्यक प्रतीति न होने पर ही लक्षणों की अपेक्षा होती है, किन्तु सभी स्थलों में वस्तुओं की अप्रतीति नही होती। विद्वान् लोग शिर और पैर से गाय को समझते हैं, किन्तु शिर और पैर को किसी ओर से समझने की आवश्यकता नहीं होती । जो व्यक्ति इन सब बातों से सर्वथा अनजान है, उसके लिए उपदेश है ही नहीं, क्योंकि वह तो बालक और गूंगे की तरह उपदेश का सर्वथा अनधिकारी है । "गन्ध से युक्त चौदह गुणों का रहना भी औरों की अपेक्षा से पृथिवी का असाधारण For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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