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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ww.kobaithong Acharya sha ka Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्ये पृथिवीअथ द्रव्यपदार्थनिरूपणम् प्रशस्तपादभाष्यम् इहेदानीमेकैकशो वैधर्म्यमुच्यते । पृथिवीत्वामिसम्बन्धात् पृथिवी । अब तक कहे हुए पदार्थों में से प्रत्येक का वैधर्म्य, अर्थात् असाधारण धर्म रूप लक्षण कहते हैं। पृथिवी जाति के सम्बन्ध से यह पृथिवी है यह व्यवहार करना चाहिए । न्यायकन्दली इहेदानीमिति । पूर्व द्वयोर्बहूनां परस्परापेक्षया वैधय॑मुक्तम् । इह वक्ष्यमाणे प्रकरणे सम्प्रत्येकैकस्य द्रव्यस्य व्यावर्त्तको धर्मः कथ्यते । एकैकश इति शस्प्रत्ययाद् वीप्सात्यन्तबहुव्याप्तिप्रदर्शनार्था । ____ उद्देशकमेण पृथिव्याः प्रथमं वैधय॑माह-पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात् पृथिवीति । यो हि पृथिवीं स्वरूपतो जानन्नपि कुतश्चिद् व्यामोहात् पृथिवीति न व्यवहरति, तं प्रति विषयसम्बन्धाव्यभिचारेण व्यवहारसाधनार्थमसाधारणो धर्मः कथ्यते-पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात् पृथिवीति । इयं पृथिवीति व्यवहर्तव्या पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात्, यत् पुनः पृथिवीति न व्यवह्रियते, न तत् पृथिवीत्वेनाभिसम्बद्धम्, यथाबादिकम्, न चेयं पृथिवीत्वेन. नाभिसम्बद्धा, तस्मात् पृथिवीति व्यवहर्तव्येति । यो वा पृथिवीति लोके शृणोति, न जानाति च तस्याः स्वरूपं कीदृगिति, तं प्रति तस्याः स्वपरजातीयव्यावृत्तस्वरूपप्रतिपादनार्थमसाधारणो (इससे) पहिले दो या दो से अधिक पदार्थों में रहनेवाले एक दूसरे की अपेक्षा से जो असाधारण धर्म हैं-वे ही कहे गये हैं। अब प्रत्येक द्रव्य में रहनेवाले असाधारण धर्म ही कहे जाते हैं। 'एकैकशः' इस पद में प्रयुक्त वीप्सा के बोधक 'शस्' प्रत्यय के प्रयोग से इस बात की सूचना होती है कि लक्षण कहने के इस क्रम का दायरा बहुत दूर तक अर्थात् प्रत्येक द्रव्य के लक्षण कहने तक है। पृथिवीत्वादिसम्बन्धात् पृथिवी । जो कोई पृथिवी को स्वरूपतः जानते हुए भी उसमें 'पृथिवी' शब्द का व्यवहार नहीं कर पाते पृथिवीत्व जाति और पृथिवीत्व जाति के अव्यभिचरित सम्बन्ध इन दोनों के द्वारा पृथिवी में 'पृथिवी' पद का उनके व्यवहार के लिए "पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात् पृथिवी" इस वाक्य से पृथिवी का असाधारण धर्म कहते हैं । इसका व्यवहार 'पृथिवी' शब्द से करना चाहिए, क्योंकि इसमें पृथिवीत्व का सम्बन्ध है। जो पथिवी शब्द से व्यवहृत नहीं होता है, उसमें पृथिवीत्व का सम्बन्ध नहीं है, जैसे कि जलादि में, यह पृथिवी से असम्बद्ध भी नहीं है, तस्मात् इसका व्यवहार 'पृथिवी' शब्द से करना चाहिए । अथवा जो लोगों से 'पृथिवी' शब्द को सुनता है, किन्तु पृथिवी के स्वरूप को नहीं जानता कि वह कैसी है ? पृथिवी को सजातीयों से एवं विजातीयों से भिन्न समझानेवाले असाधारण धर्म For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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