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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणं ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५३ न्यायः । कथं तहि सामान्येषु प्रत्ययानुवृत्ति: सामान्यं सामान्यमिति ? अनेकव्यक्तिसमवायोपाधिवशाद् विशेषेष्वप्येकशब्दप्रवृत्तिः, अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिजनकत्वस्य सर्वत्र सम्भवात् । नित्यत्वं विनाशरहितत्वम्, तदपि सामान्यस्य व्यक्त्युत्पादविनाशयोरवस्थितिग्राहिणा भूयो भूयः प्रवृत्तेन निरुपाधिप्रत्यक्षेण व्याप्तिवन्निश्चीयते । समवायस्य तु सर्वत्र कार्योपलम्भादकृतकत्वाच्चानुअर्थशब्दानभिधेयत्वञ्चेति । मीयते । साधर्म्यम् । चः समुच्चये । स्वसमयार्थशब्दानभिधेयत्वं चैतेषां चुके हैं । ( प्र० ) फिर सभी सामान्यों में 'ये सामान्य हैं' इस एक आकार की प्रतीति ( अनुवृत्तिप्रत्यय ) क्यों होती हैं ? ( उ० ) सभी सामान्य अनेक व्यक्तियों में रहते हैं, अतः यह " अनेक व्यक्तियों में रहना या अनेक व्यक्तिवृत्तित्व" रूप एक उपाधि सभी सामान्यों में है । इसी अनेक व्यक्तिवृत्तित्व-रूप उपाधि के कारण सभी सामान्यों में उक्त एक आकार की प्रतीति होती है । सभी विशेषों में भी 'ये विशेष हैं' इस एक आकार की प्रतीति होती है । इसके लिए भी विशेषत्व नाम के सामान्य का मानना आवश्यक नहीं है । क्योंकि सभी विशेषों में जो अपने अपने आश्रय को विभिन्न पदार्थों से विलक्षण रूप से समझाने की क्षमता है, उसी क्षमता रूप एक उपाधि के बल से ही उक्त एकाकार की प्रतीति को उपपत्ति हो जाएगी । 'नित्यत्व' शब्द का अर्थ है विनाश रहित होना । यह (नित्यत्व) भी व्यक्तियों की उत्पत्ति से पहिले और उनके नाश के बाद भी सामान्यों के वर्तमानता का ज्ञापक उनमें बार-बार प्रवृत्त प्रत्यक्ष प्रमाण से ही व्याप्ति की तरह ज्ञात होता है । समवाय से सभी स्थलों में ( सभी कालों में ) कार्य की उत्पत्ति देखी जाती है, एवं समवाय किसी भी कारण से उत्पन्न हुआ नहीं दीखता है । इन्हीं दोनों हेतुओं से समवाय में नित्यत्व का अनुमान होता है । 'अर्थशब्दानभिधेयत्वश्व' अर्थात् वैशेषिक शास्त्र में बिना विशेषण के केवल 'अर्थ' शब्द से द्रव्य, गुण, कम्मं इन तीनों के ही समकने का एक सङ्केत है । तदनुसार उक्त 'अर्थ' शब्द का अभिधावृत्ति द्वारा न समझा जाना भी सामान्यादि तीनों का साधर्म्य है । 'च' शब्द समुच्चय अर्थ का बोधक है । For Private And Personal 'सामान्यत्व' भी सामान्य ही होगा । यह सामान्यत्व-रूप सामान्य - द्रव्यत्वादि पहिले से स्वीकृत सामान्यों में तो रहेगा, किन्तु स्वाभिन्न सामान्यत्व - रूप सामान्य में न रहेगा, क्योंकि एक वस्तु में आधाराधेयभाव असम्भव है, अतः पूर्व स्वीकृत द्रव्यत्वादि सामान्य एवं अधुना स्वीकृत सामान्यत्व - रूप सामान्य एतत्साधारण एक दूसरे सामान्यत्व की कल्पना करनी पड़ेगी । इस प्रकार अनन्त सामान्यत्वों को कभी समाप्त न होनेवाली कल्पना की धारा चलेगी। यही अनवस्था है ।
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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