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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [साधर्म्यवैधयं प्रशस्तपादभाष्यम् पृथिव्यादीनां नवानामपि द्रव्यत्वयोगः स्वात्मन्यारम्भकत्वं गुणवत्वं कार्यकारणाविरोधित्वमन्त्य विशेषवश्वम । द्रव्यत्व जाति का सम्बन्ध, अपने में समवाय सम्बन्ध से कार्य को उत्पन्न करना, गुणवत्त्व, अपने कार्यों से या कारणों से विनष्ट न होना एवं अन्त्यविशेष ये पाँच साधर्म्य पृथिवी प्रभृति नौ द्रव्यों के हैं। न्यायकन्दली इदानीं द्रव्याणामेव साधर्म्य निरूपयति—पृथिव्यादीनामिति । पृथिव्यादीनामेव द्रव्यत्वेन सामान्येन योगः सम्बन्धः । स कियतामत आह-- नवानामपीति। अपिशब्दोऽभिव्याप्त्यर्थः। एतेन द्रव्यपदार्थस्येतरेभ्यो भेदलक्षणमुक्तम् । द्रव्यशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तञ्च चिन्तितम् । अत्र कश्चित् चोदयति-द्रव्यत्वयोगो द्रव्यत्वसमवायः, स च पञ्चपदार्थधर्मत्वात् कथं द्रव्यलक्षणमिति । अपरः समाधत्ते-यद्यपि सर्वत्राभिन्नः समवायः, तथापि द्रव्यत्वोपलक्षणभेदाद् द्रव्यस्य लक्षणम्, दृष्टो हि कल्पितभेदस्याप्याकाशस्य श्रोत्रभावेनार्थक्रियाभेद इति । द्वयमप्ये पृथिव्यादीनाम्' इत्यादि सन्दर्भ से अब केवल नौ द्रव्यों का ही साधर्म्य कहते हैं। पृथिवी प्रभृति नौ द्रव्यों का ही द्रव्यत्व जाति के साथ योग' अर्थात् सम्बन्ध है। द्रव्यत्व जाति का यह सम्बन्ध पृथिव्यादि कितने द्रव्यों के साथ है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'नवानाम्' इस पद से दिया है। 'नवानामपि' इस वाक्य के 'अपि' शब्द का अर्थ है ( सभी द्रव्यों में सम्बन्ध रूप) 'अभिव्याप्ति' । अर्थात् पृथिव्यादि नौ द्रव्यों में से किसी को न छोड़कर सभी द्रव्यों में रहना । इस अभिव्याप्ति से द्रव्य पदार्थ को गुणादि पदार्थों से भिन्न समझानेवाला स्वरूप कहा गया है। इससे 'द्रव्य' शब्द का 'प्रवृत्तिनिमित्त' भी निद्दिष्ट हो जाता है। इस प्रसङ्ग में कोई आक्षेप करते हैं कि प्रकृत 'द्रव्यत्वयोग' शब्द का अर्थ है द्रव्यत्व का समवाय, वह द्रव्य से विशेष पर्यन्त पांचों पदार्थों में समान रूप से है। फिर यह 'द्रव्यत्वयोग' पृथिव्यादि नौ पदार्थों का ही 'साधर्म्य' कैसे है ? इस आक्षेप का समाधान कोई इस प्रकार कहते हैं कि यह ठीक है कि ( समवाय एक होने के कारण ) सभी स्थलों में एक ही है, किन्तु द्रव्यत्व रूप उपलक्षण ( प्रतियोगी) के भेद से वह केवल द्रव्यों का ही लक्षण हो सकता है । एक ही वस्तु में उपलक्षण के भेद से विभिन्न कार्यों के सम्पादन की क्षमता देखी जाती है. जैसे एक ही आकाश के सर्वत्र रहने पर भी कर्णशष्कुली रूप उपाधि से श्रोत्रभावापन्न आकाश से ही शब्दश्रवण रूप कार्य होता है। किन्तु उक्त आक्षेप और उसका यह समाधान दोनों ही असङ्गत हैं, क्योंकि जिस प्रकार आकाश ही श्रोत्र है For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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