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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम [साधयंवैधयं न्यायकन्दली सम्बन्धिनि कस्यासौ सम्बन्धः स्याद् । अथ पटेन सहोत्पद्यते, तदा पटस्यानाधारत्वं प्राप्नोति । अथ पश्चाद्भवति, तथापि पटस्यानाधारत्वमेव, न च कार्यत्वमनाधारं युक्तम्, तस्मादकृतकः समवायः । विशेषाणाञ्चाकार्यत्वं वस्तुत्वे सति द्रव्यगुणकर्मान्यत्वात् सामान्यसमवायवत् सिद्धम् । अकारणत्वं समवाय्यसमवायिकारणत्वाभावः, न तु निमित्तकारणत्वप्रतिषेधः, बुद्धि निमित्तत्वाभ्युपगमाद् । असामान्यविशेषवत्त्वम् अपरजातिरहितत्वमित्यर्थः । सामान्येषु सामान्यन्नाम नापरं सामान्यमस्ति, अत्रापि सामान्यप्राप्त्याऽनवस्थानात् । विशेषसमवाययोस्तु सामान्याभावे कथित एव निम्नलिखित तीन ही गति हो सकती है कि (१) समवाय अपने पटादिरूप प्रतियोगी से पूर्व ही उत्पन्न हो, या (२) अपने प्रतियोगी से पीछे उत्पन्न हो (३) अथवा प्रतियोगी के साथ ही उत्पन्न हो । किन्तु इनमें से कोई भी प्रकार सम्भव नहीं है, (१) क्योंकि सम्बन्ध बिना प्रतियोगी के नहीं होता है । अगर समवाय की उत्पत्ति से पूर्व पट की सत्ता नहीं रहेगी तो फिर पट से पूर्व उत्पन्न वह समवाय किसका सम्बन्ध होगा ? अतः समवाय अपने पटादि प्रतियोगियों के पहिले उत्पन्न नहीं हो सकता। (२) समवाय अपने पटादि प्रतियोगियों के साथ साथ भी उत्पन्न नहीं हो सकता है, क्योंकि इससे पटादि कार्य समवाय के आधार ही नहीं हो सकते, क्योंकि आधार को आधेय से पूर्व रहना आवश्यक है। सुतराम् एक ही क्षण में उत्पन्न दो वस्तुओं में आधाराधेय भाव असम्भव है। (३) समवाय की उत्पत्ति अगर पटादि कार्यों की उत्पत्ति के बाद माने फिर भी पटादि की अनाधार उत्पत्ति की आपत्ति रहेगी, क्योंकि पट की उत्पत्ति के समय अगर समवाय ही नहीं है तो फिर तन्तु में किस सम्बन्ध से पट की उत्पत्ति होगी? अतः समवाय अकार्य ही है। वह कारणों से उत्पन्न नहीं होता है। विशेष भी कार्य नहीं है, क्योंकि द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों से भिन्न होने पर भी वह भाव पदार्थ है, जैसे कि सामान्य और समवाय । यहाँ अकारणत्व' शब्द से समवायिकारणत्व और असमवायिकारणत्व इन दोनों का ही निषेध इष्ट है, निमित्तकारणत्व का नहीं, क्योंकि सामान्गादि में भी बुद्धि की निमित्तकारणता स्वीकृत है। 'असामान्यविशेषवत्व' शब्द का अर्थ है अपरजातियों का न रहना। सामान्यों में सामान्यत्व नाम का कोई अपर सामान्य नहीं है, क्योंकि इससे अनवस्था होगी। समवायों और विशेषों में सामान्य के न रहने की युक्ति दिखला १. जातियों में जातित्व नाम का सामान्य मानने में अनवस्था इस प्रकार होती है कि द्रव्यत्व गुणत्वादि जितने सामान्य पहिले से स्वीकृत हैं उन सभी सामान्यों में जातित्व या सामान्यत्व नाम का एक और सामान्य मानना पड़ेगा, किन्तु यह For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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