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प्रकरणम् ]
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भावानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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अकार्यत्वं कारणानपेक्षस्वभावत्वम्, तच्च सामान्ये तावद् व्यक्तेः पूर्वमूर्ध्वं व्यक्तिकाले चावस्थितिग्राहकेण कारणाभावोपलब्धिसहकारिणा भूयो - दर्शनजसंस्कारानुगृहीतेन प्रत्यक्षेणैव व्याप्तिवद् गृह्यते । समवायस्याप्य कार्य्य त्वं पूर्वापर सहभावानवक्लृप्तेः, यदि हि पटस्य समवायः पटात् पूर्वं सम्भवति, असति
अकार्यत्व शब्द का अर्थ है अपनी (स्वरूप) सत्ता के लिए कारणों की अपेक्षा न रखना । सामान्यादि के आश्रय द्रव्यादि व्यक्तियों में तीनों कालों में ही सामान्य की सत्ता के ज्ञापक एवं सामान्यादि के कारणों के अभावज्ञान का सहायक तथा बार बार के देखने से उत्पन्न संस्कार के द्वारा विशेष बलप्राप्त प्रत्यक्ष के द्वारा ही व्याप्ति की तरह इस अकार्यत्व का ज्ञान होता है । समवाय में भी अकार्यत्व है ही, क्योंकि समवाय को कार्य मानने की कोई रीति उपपन्न नहीं होती है । समवाय को अगर कार्य मानें तो फिर उसकी
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किया है । वैधर्म्यनिरूपण के लिए साधर्म्यनिरूपण के अन्त में लिखा है कि "एवं सर्वत्र साधर्म्य विपर्ययाच्च वैधर्म्यम्" अर्थात् इस प्रकार ये साधर्म्य हैं और ( ये ही साधर्म्य ) उनसे भिन्न वस्तुओं न रहने के कारण उनके वैधर्म्य हैं। तदनुसार 'सामान्यादीनाम्" इत्यादि प्रकृत पक्ति का एक यह भी अर्थ मानना पड़ेगा कि 'ये सभी स्वात्मसत्त्वादि तोन पदार्थों से भिन्न पदार्थों के वैधर्म्य भी हैं । अगर बुद्धिलक्षणत्व शब्द को ऐसी व्याख्या करें जिसके अनुसार यह द्रव्यादि में भी रह सके तो फिर प्रकृत पङ्क्ति से उक्त वैधर्म्य का आक्षेप सम्भव न हो सकेगा ।
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१. अभिप्राय यह है कि एक घट व्यक्ति की उत्पत्ति के पहिले भी उससे पहिले के घट में घटत्व की प्रतीति होती है । एवं एक घट व्यक्ति के नष्ट हो जानेपर भी दूसरे अविनष्ट घट में घटत्व की प्रतीति होती है। वर्तमान घट में घटत्व की प्रतीति में तो कोई विवाद ही नहीं है, अतः यह समझते हैं कि व्यक्ति के तीनों कालों में ही जाति की सत्ता रहती है। ऐसी स्थिति में सामान्य को अगर किसी कारण का कार्य माने तो वह कारण उसके आश्रयीभूत व्यक्तियों के कारणों में से ही होगा या उसके सदृश ही कोई दूसरा होगा, किन्तु किसी भी प्रकार से सामान्य में कार्यत्व मान लेने से उसकी उक्त त्रैकालिक प्रतीति की उपपत्ति नहीं होगी, अतः उक्त त्रैकालिक प्रतोति के कारणभूत प्रमाणों से ही यह भी समझते हैं कि सामान्यादि का कोई कारण नहीं है, अतः जिस प्रकार धूम और वह्नि के सामानाधिकरण्य के भूयोदर्शनजनितसंस्कार से युक्त पुरुष को धूम को देखते हो उसकी व्याप्ति भी दीखती है, उसी प्रकार व्यक्तियों में सामान्य का होते ही उसी प्रत्यक्ष प्रमाण से उसमें रहनेवाले अकार्यत्व का भी ज्ञान हो जाता है ।
प्रत्यक्ष