SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुविष्क का मथुरा शिलालेख 13. (ये च) पुराणशत 500 (+) 50 (॥) 1. सिद्धि हो। अट्ठाईसवें वर्ष के गुर्पिय मास के प्रथम दिन इस पुण्य(धर्म) शाला (को) प्राचीनीक सरुकमाण के पुत्र [अथवा प्राचीन (पुरातन) या पूर्व दिशा में स्थित, कनसरुकमाण के पुत्र; अथवा प्राचीनीकन रुकमाण के पुत्र; अथवा प्राचीनिकों में सरुकमाणं के पुत्र] खरासलेर (नामक स्थान) के स्वामी तथा 3. वकन (सम्भवत: मध्य एशिया का 'बखन') के स्वामी ने अक्षय (स्थायी) पूंजी दी है। उसके सूद से हर माह, शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को धर्मशाला । 5. में सौ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये और प्रतिदिन धर्मशाला के दरवाजे की देहली (द्वारमूल) में तीन आढक (256 मुष्टि का एक आढक होता है), ताजा अथवा स्वादिष्ट सत्तू 7. एक प्रस्थ (अञ्जलि) नमक, एक प्रस्थ शुक्त (अम्ल, खट्टा रस), हरित कलापक (विभिन्न हरी वनस्पतियों से निर्मित रस) के तीन घड़े तथा पांच मल्लक (दीपक अथवा पानपात्र) रखना चाहिये। यह अनाथों को देना चाहिये, भूखे तथा प्यासों को भी (देना चाहिये) और जो भी यहां पुण्य (हो रहा) है वह देवपुत्र 10. षाहि हुविष्क का (ही) है। और जिन्हें देवपुत्र प्रिय है उनका भी पुण्य 11. हो। और सारी पृथ्वी का पुण्य हो। 12. ... श्रेणी को 550 पुराण (58.56 ग्रेन के चांदी के आहत सिक्के अथवा कार्षापण) की स्थायी पूंजी (अक्षयनीवि) दी तथा समिताकर (गेहूं आटे का संग्रह रखने वाले या उसके थोक व्यापारियों की श्रेणी (संघ या ट्रस्ट) 13. को भी 550 पुराण (की अक्षय नीवि दी है)। For Private And Personal Use Only
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy