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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 304 प्राचीन भारतीय अभिलेख 32 31. पुरधनी भूर्भुवः स्वः पुनीते यावच्चान्द्री कलयति कलोत्तंसतां भूतभर्तुः। यावच्चेतो गमयति सतां श्वेतिमानं त्रिवेदी तावत्तासां रचयतु सखी तत्तदेवास्य कीर्तिः॥ [34] निर्षिणक्तसेन कुलभूपतिमौक्तिकानाग्रन्थिलग्रथनपक्ष्मलसूत्रवल्लिः । एषा कवेः पदपदार्थविचारशुद्धवु (बु)द्धेरुमापतिधरस्य कृतिः प्रशस्तिः ॥ [35] धर्म ] प्रणप्ता मनदासनप्ता वृ(बृहस्पतेः सूनुरिमां प्रशति ।] चखान वारेन्द्रकशिल्पिगोष्ठीचूडामणी राणकशूलपाणिः॥[36] ओम्! ओम् शिव को प्रणाम। वक्ष के वसन (कञ्चुकी) को खींचने से जल्दी से खींची गयी सिर की माला की छटा से कामभवन की दीपकान्ति हतप्रभ हो गयी। ऐसी देवी (पार्वती) के लज्जा से मुकुलित मुख को चन्द्र की कान्ति में देख जिनके मुख मुस्कुरा उठे, उन शम्भु की जय हो। 1 लक्ष्मी के प्रिय 2. तथा पार्वती के प्रिय के एक ही लीलासदन रूप अधिष्ठान को हम प्रणाम करते हैं। जो प्रद्युम्नेश्वर (हरिहर) शब्द से पुकारे जाते हैं जो दोनों देवियों के एक ही शरीर के धारण करने के सम्बन्ध में आपत्ति करने पर आलिङ्गन-भङ्ग की परेशानी से दोनों कान्ताओं के मध्य स्थित कर किसी प्रकार शिल्प में एक शरीर के रूप में प्रस्तुत किया। 2 उस प्रथम राजा, चन्द्रमा की जय हो जिसके लिये शिव का स्वर्णिम जटा समूह सिंहासन है, गंगा के छीटोंके फुहार-समूह जिसके चामर का काम देते हैं, तथा जिसका श्वेत तथा फैले हुए फण से युक्त डोलते हुए, शिव जी के सिरों का शृंखला (डोरी) रूप सर्प का छत्र है। 3 उस (चन्द्र) वंश में देवाङ्गनाओं की 4. विपुल कला के साक्षी, दक्षिण देश के वीरसेन आदि कीर्ति सम्पन्न नृप हुए For Private And Personal Use Only
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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