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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 82 ) हारकरोहि बहिर्भवति // दैत्यहेति संजपनाहुष्टघ्नोभवति मानवोभक्तः // 54 // मुण्डविभूषितपाठी तेजस्वी चैवयशस्वीसः // बालभुक्नानापाठादेहिकभोगान्समा क्ते // 55 // बलिभङनाथाख्यातो भवतिनरोराजराजेशः // बा लाभिख्याभजनात्समदृष्ठिहिमानवो भवति // 56 // प्रीत. मनाः संक्रीडितः सर्वेषां प्रियतमोन्हणाम् // बालपराक्रम पाठान्महाबलोभवति चौजस्वी // 57 // आपद्विलयं गमयति सर्वापत्तारणाभिरख्यः॥ दुर्गाभिख्याभजनादुष्टोऽपिविमुच्य ते जन्तुः // 58 // दुर्गतिकोऽपि हि सुगतिर्दुर्गमकार्य हि सुगमतरं भवति // भजतांभक्तजनानां मुक्तिकरोभैरवस्तेषांम् // 59 // दुष्टभूतविनिषेवितनाम्नाः पाठाद्भवन्ति भक्ता नाम् // दुष्टा भूता वशगा भैरवनाथप्रसादतः सद्यः // 6 // कामीत्यस्य च पाठाहीस्तरुणी वे भुङ्क्ते // सर्वानन्दसु पूर्णो भवभयभङ्गकारकोमृहङ्गी // 6 // भवति कलानिधि पाठाद्भक्तोनानाकलाभिज्ञः॥ सर्वसमर्थोज्ञानी परमैश्वर्यसंयुतोधर्मी // 62 // कान्तकामिनीवशकद्भजनात्कान्तकामिनी वशगा // भवति भजनकरस्य हि अनुकम्पातोहि भैरवस्य // 63 // वशीत्यभिरव्याभजनात्सर्वे वशगा हि मानवान्ढणाम् सत्वान्तेन्द्रियवर्गों वश्योवशिनोहि महात्म्यतोभवति // 64 / / सर्वसिद्धिसंप्रदइति संजपनासिद्धयःसर्वाः // भैरवनाथरूषा तोभवति सुभक्तस्य विचारणातेन // 65 // वैद्याभिख्याभज नाद्रोगास्तापादिका विनश्यन्ति // संसृतिरोगाक्रान्तोविज्ञा नं हि भेषजं समाप्नोति // 66 // प्रभुरित्याख्यापठनात्सर्व. For Private and Personal Use Only
SR No.020537
Book TitleParambika Stotravali
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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