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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (81) ख्यामजनाच्छुद्धस्वान्तोहि जनोभवति // 41 // शङ्करप्रिय बन्धुरिति भजतोयुपकारकारकोदेवः // सुखदोभैरवनाथो भवति सदानन्ददायकस्तस्य // 42 // अष्टमूर्तिरिति पाठाप्रसन्नताचाष्ठमूर्तीनाम् // निधीश इति संकथनाद्भवति धना व्योहि पुरुषोसौ // 43 // ज्ञानचक्षुरिति पाठाद्भवति ह्यात्मात्मदर्शकः पुरुषः // तपोमयाभिख्यातः पूतात्मा भवति मानवः सद्यः // 44 // अष्टाधाराभिख्या भजनादाधारवान् हि भवति // षडाधार इति भजनाद्भवतिजनश्चाश्रयीलोके / 45 // सर्पयुक्त इति भजनात्सा न हि भयप्रदास्तस्य // शिखीसखाभिख्यातो मूर्धन्योभवति लोकानाम् // 46 // हुत भुक्तेजा भवति हि भक्तोदेवस्य तापदः शत्रोः भूधरइति संपाठात् क्षमाकरोहि निश्चलोभवति // 47 // पर्वतभयं न ते स्यात्पठमानवभूधराधीशम् // भूपतिरितिसंपाठात् कृपया देवस्य भूपतिर्भवति // 18 // प्रियंवदस्त्वं भवसि हि पठ हे भक्त भूधरात्मेति कङ्कालधारिपाठायंकरोभवति शत्रुवर्ग स्य // 49 // मुण्डोति च संपठनात्संग्रामे हि शत्रुमारको भवति // सोपवीतमानिात पठनात्कालहारकोमवति 50 // जृम्भण इति संपठनान्निद्रातन्द्रायुता घरयः // मोहन इति संपठनान्मोहकरोभवति लोकानाम् // 51 // स्तम्भीति च संभजनात् स्तम्भकरोभवति शत्रूणाम् // मारण इति संपठनाद्भवति कृतान्तोहि शत्रूणाम् // 52 // क्षोभण इति संप ठनात् क्षोभयिता भवति वैरिवर्गाणाम् // शुद्धपूर्वनीलाञ्जन प्रख्यापाठान्नरोभवति // 53 // स्फटिक इवान्तःशुद्धोव्यव For Private and Personal Use Only
SR No.020537
Book TitleParambika Stotravali
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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