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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 148 ) खरौ सुखछावत // त्रिपुरा रितु ग्रीखम है जुमनां सुखसा। धन तें जु यह समुझावत मुखचन्द जु न्हाई सुहात सदा मुखदाई सुन सुधारस पावत // 1 // भक्त महिमा अज्ञनिन्दा सवैया // राग रु द्वेसनहीं हियमै सबको त्रिपुरा मय जांनत हैं। प्रेमपयोनिध माहिपगे परदेवता रूप वखानत है, ताहिको ध्यानधरै मनमें तिहभिन्न वृथा जिय जांनत है // अज्ञजो निंदत है जिनका तिनकां नितकोट कनांनत है // 1 // शंभू स्वयंभु कां जीव करे पुन जीवहि ब्रह्म करे मनभावें / वा. सवरंक करै पुनरंक कां वासव की पदवी पहुंचावें / सुक्रत दुक्रत दुक्रत सुक्रत कंचन चित्र चरित्रहि गावै // ताहि भजै हम तापद वंछत ताजगदंव कां सीस नमा // 2 // जाके भोह भंगहीत ब्रह्माविष्णु रुद्रकेते उपजे ओ लीनभए गिन ती को करलें / जाके ही पदाब्ज धलि धूसरित होय त्रिहु देव जगरचें पालें फिरके संहरलें // ध्यान धरै जांकोंही हृदंतर सकल मुनि उठिहू विलाय जात भवसिंधुतरलें। यह लोक सुखचाहैं फिर मोक्ष भयौ चाहे त्रिपुरा त्रयक्षर को नाम नित्य नरलें // 3 // पूरन सरद चन्द्र उज्जल वदन जा. को ध्यायो जब हियतम मायिक निकसगौ / जाके कल्पल तिकासीभुजलता छाह आयो तव जिय दयिनताप ता प्रता पषसगौ // जा के पद पंकज पराग लेचढ़ायो सीस तब ही तो मेरो मनभ्रंग तत्रासगो / जब गुरुदेव मोपें क्रपा के वतायदियो तब हि त्रिपुरारूप मेरे चित्त बसगौ // 20 // For Private and Personal Use Only
SR No.020537
Book TitleParambika Stotravali
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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