SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 147 ) विसुखजन दुर्जनकनक कहै, ताकी नीचसंगति सों मौमन भग्यो रहै / यहीहैत जाचत बिने जुतस इवनसां मेरोमन घोंसनिसा सेवा में लग्यो रहै // 2 // हात नहिप्रयागादि तीरथ सलिलतोहु हातभयो उज्ज्वलमें छुट्यो पापधेरोहै / हठ और राजयोगादलें अनेकविध साधे नहीं साधे मेरोमियो विश्वफेरो है // पढ्यो नाहिवेद अरुतंत्रन पुरानकछु पढ्यो सब शास्त्र भयोउरमें उजेरो है। दासदुषहारी समरस सुख कारी एसीत्रिपुरा उपासन में मौसुख घनैरो है // 3 // वि. नायक ब्रह्महमें सूरजहरिरुद्रहू में भैरवभगेशहमें मेरीमात नेरी है / दत्तऔर दिगम्बर जलंधर मछन्दरमें गौरखकपिल देवमूरति मैं हेरी है, कंचनकहत गुरुनाथ में निरंतर हू त्रिपुरे त्रिसक्तिहमैं आनंदघनेरीहै / थिरचरविश्वब्रह्मसगुन निगुनहमै जहां होत निश्चय तहांही जोततेरी है // 4 // ॥सवैया // रावरो श्रीमुखइंदुविलोक चकोर भयोमनमेरौ सुभाई / त्यांतुवनासिका दीपपतंग भयोमनमेरौ निहार निकाई // चं. चलमोमन मीन भयोलाख के तनपांनपकी सरसाई। मामन भोरभयौ लखिकै पदपंकज रावरेश्रीत्रिपुराई // 1 // श्रीवि याया मातंग्यादि अंतरंग षट्सखी मध्ये कस्याश्चित्सख्या वचनं / यद्वा / कामेश्वर्यादि कस्या श्चित्सख्या वचनं // ॥सवैया // तनपानपहोज भरयौजु निरंतर पुनके जनके मन नहायत / रसमीन फुहारन की अवलो जिह देह की देख For Private and Personal Use Only
SR No.020537
Book TitleParambika Stotravali
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy