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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 134 ) लिकका रूप आप मांगणा येबी बात बोहत बुरी है और वो जो अंतर्यामी है तबतो विचारे नारद का दोसही क्या है उनांने जेसी प्रेरणाकरी वैसाही उसने प्रार्थना करी ओर वो अंतर्यामी नहीं है तब नारद का दोस है। परंतु वडांन कु क्षमा करणे का अधिकार है सु क्षमा करणी अरु जो क्षमा नही की तो पीछा नारद ने श्राप नहीं देणाथा मालककुं पीछा श्राप देदीया तब वो भक्त क्या भया और भक्त का श्राप मालक कुं लगगया तो वो फेर मालक ही क्या भया ये तो बराबरी भई परंतु जैसे मालिक वेसाही भक्त हमारे तो ये वात पसंद नहीं आई विष्णु की अपेक्षा तें नारद नूनहै और विष्णुका दास है तो दासका अपराध क्षमा करणा था समर्थ क्षमा करै उसमें उनका बड़ा यश बीस्तीर्ण होता है अरु नारद कुं दंड मंजूर खुसी के साथ करलेणा था क्यूंके मालक चावे सो करे जो करे उसीमें दासकुं प्रसन्नता सै रहणा येही दासका परम धर्म हे नहीं जब धर्मनष्ट होजाता है सु इस तरे नहीं तो किसी भक्तके साथ भगवती ने अनार्य जुष्ट कर्म कियानहीं पराशक्ति के आत्यंतिक भक्तों ने एसी श्रीजी के साथ हरामखोरा कीया और श्रीविष्णुने या उनकाअवतार श्रीकृष्णनेब्राह्मणोंकी जहांतहां बोहत स्तुती करीके और कहा है ये हमारा इष्ट है ब्राह्मण हमारा परम देवत है ब्रह्माण हमारा ही रूप है ब्राह्मण के सामने जो हमारा हाथ होजावे हमारे हाथ से हमारा हाथ काट डारे इस तरे अपणे मुखसै कहकर फेर निरवाह For Private and Personal Use Only
SR No.020537
Book TitleParambika Stotravali
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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