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मरागद्वेषों
८ अक्खरकोउआएमभूइकम्मेहिं । करणाणुमोअणाहि अ, साहुस्स तवक्खओ होइ ॥११५ ॥ जह जह कीरइ संगो, तह तह पसरो साधुत्वं
खणे खणे होइ । थोवोवि होइ बहुओ, न य लहइ धिई निरंभंतो ॥११६॥ जो चयइ उत्तरगुणे, मूलगुणेऽवि अचिरण सो चयइ । उपदेश
जह जह कुणइ पमायं, पिल्लिज्जइ तह कसाएहि ॥११७॥ जो निच्छएण गिण्हइ, देहच्चाएविनय धिई मुअइ । सो साहेइ सकज्ज, मालायां
वजह चंदवडिंसओ राया ॥ ११८ ॥ सीउण्हखुप्पिवासं, दुस्सिज्जपरीसहं किलेसं च । जो सहइ तस्स धम्मो, जो धिइमं सो तवं |
चरइ ।। ११९ ॥ धम्ममिणं जाणंता, गिहिणोवि दढबया किमुअ साहू । कमलामेलाहरणे, सागरचंदेण इत्थुवमा ॥ १२० ॥
देवेहि कामदेवो, गिहीवि नवि चालिओ (चाइओ) तवगुणेहिं । मत्तगयंदभुयंगमरक्खसघोरट्टहासेहिं ॥ १२१ ॥ भोगे अभुंज॥२१३।।
माणावि केइ मोहा पडंति अहरगई । कुविओ आहारत्थी, जत्ताइ जणस्स दमगुग्ध ।। १२२ ।। भवसयसहस्सदुलह, जाइजरामर णसागरुत्तारे । जिणवयणम्मि गुणायर ! खणमवि मा काहिसि पमायं ॥ १२३ ।। जं न लहइ सम्मत्तं, लणवि जं न एइ संवेग ।। विसयसुहेसु य रज्जइ, सो दोसो रागदोसाणं ॥ १२४ ॥ तो बहुगुणनासाणं, सम्मत्तचरित्तगुणविणासाणं । न हु वसमागंतव्वं, रागहोसाण पावाणं ।। १२५ ॥ नवि तं कुणइ अमित्तो, सुदृवि सुविराहिओ समत्थोऽवि । जं दोऽवि अणिग्गहिया, करंति रागो अM दोसो अ ॥ १२६ ॥ इहलोए आयासं अजसं च कति गुणविणासं च । पसवंति अ परलोए, सारीरमणोगए दुक्खे ॥१२७॥ धिद्धी अहो अकज्ज, जं जाणतोऽवि रागदोसेहिं । फलमउलं कडुअरसं, तं चेत्र निसेवए जीवो ॥१२८ ॥ को दुक्खं पाविज्जा? ॥२१३।। | कस्स व सुक्खे हि विम्हओ हुज्जा को व न लभिज्ज मुक्खं ? रागद्दोसा जइ न हुज्जा ॥१२९॥माणी गुरुपडिणीओ, अणस्थभरिओ
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