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अप्पकार
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अप्पग्ध
64; बलवा पुरिसो अप्पकसिरेनेव अच्छर पहरेय्य, म. नि. 3.362. अप्पकार त्रि., ब. स. [अप्रकार], कुरूप, भयानक रूप वाला, बेडौल शरीर वाला, भद्दी आकृति वाला - दुद्दसी अप्पकारोसि, दुब्बण्णो भीमदस्सनो, जा. अट्ठ. 5.63; अप्पकारोसीति सरीरप्पकाररहितोसि, दुस्सण्ठानोति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.64. अप्पकासन नपुं..पकासन का निषे., तत्पु. स. [अप्रकाशन]. सुस्पष्ट रूप में नहीं दिखलाई पड़ना, नहीं चमकना या प्रभासित होना - केनस्सु नष्पकासतीति लोकस्स अप्पकासनं पुच्छति, नेत्ति. 11; नेनस्सु निवुत्तो लोको, केनस्सु नप्पकासति, सु. नि. 1038. अप्पकिच्च त्रि., ब. स. [अल्पकृत्य], बहुत कम दायित्व वाला, थोड़े से ही कामकाज को हाथ में लिया हुआ - च्चो पु.. प्र. वि., ए. व. - सन्तुस्सको च सुभरो च, अप्पकिच्चो च सल्लहुकवुत्ति, सु. नि. 144; अप्पं किच्चमस्साति अप्पकिच्चो, सु. नि. अट्ठ. 1.161; तस्मा हि अप्पकिच्चस्स, अप्पमिद्धो अनुद्धतो, इतिवु. 52. अप्पकिण्ण/अप्पाकिण्ण त्रि., पकिण्ण का निषे. अथवा
अप्प + आकिण्ण का स. प. [अप्रकीर्ण/ अल्पाकीर्ण], भीड़-भाड़ से नहीं भरा हुआ, कम भीड़ वाला, अत्यधिक नहीं भरा हुआ, बाधाओं से रहित, - किण्णं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सेनासनं नातिदूरं होति नाच्चासन्नं गमनागमनसम्पन्न दिवा अप्पाकिण्णं रत्तिं अप्पसदं .... अ. नि. 3(2).13; दिवाअप्पाकिण्णन्ति दिवसभागे महाजनेन अनाकिण्णं अ. नि. अट्ठ. 3.287; दिवा अप्पाकिण्णं रत्ति अप्पस अप्पनिग्घोस विजनवातं. महाव. 44; -किण्णा पु.. प्र. वि.. ब. व. - तत्थ मयं अप्पसद्दा अप्पाकिण्णा फासं विहरेय्यामा ति, अ. नि. 3(2).111. अप्पकिलमथेन पु., अप्पकिलमथ का तृ. वि., ए. व. [अल्पक्लमथेन]. बिना किसी थकावट के, सरलता से, सुखपूर्वक, आराम से - कच्चिसि अप्पकिलमथेन अद्धानं आगतो, न च पिण्डकेन किलन्तोसी ति, उदा. 135; अप्पकिलमथेनाति अनायासेन इमं एत्तकं अद्धानं कच्चि आगतोसि. उदा. अट्ठ. 254; खमनीयं कच्चि यापनीयं कच्चिसि अप्पकिलमथेन अद्धानं आगतो?, पारा. 227; महाव. 66. अप्पकिलेस/अप्पक्लेस त्रि., ब. स. [अल्पक्लेश], क्लेशों से रहित, बहुत कम क्लेशों से युक्त - सो पुरिमनयेनेव
अप्पकिलेसो होति, ध. स. अट्ट, 306; धम्मकामो सदा होमि, अप्पक्लेसो अनासवो, अप. 1.339; अप्परजक्खजातिकाति पञाचक्खुम्हि अप्पकिलेसरजसभावा, स. नि. अट्ट, 1.152. अप्पकोध त्रि.. ब. स. [अल्पक्रोध], बहुत कम या नहीं के बराबर क्रोध से युक्त, क्रोधरहित - अप्पकोधो अनायासो, संसरन्तो भवे अहं, अप. 1.344. अप्पक्खता स्त्री., भाव, द्रष्ट. अपक्ख के अन्त.. अप्पक्खर त्रि०, ब. स. [अल्पाक्षर], बहुत कम अक्षरों वाला, कुछ ही अक्षरों वाला - यस्मा च सुत्तेन नाम
अप्पक्खरेन असंदिड्वेन सारवन्तेन, सद्द. 1.150. अप्पगंध त्रि.. ब. स. [अल्पगन्ध], गन्धरहित, बिना गन्ध वाला - लोहितचन्दनस्स एकदेसं प्रतिक होति अप्पगन्ध मि. प. 236. अप्पगम त्रि., पगब्भ का निषे., तत्पु. स. [अप्रगल्भ]. हठ या दुराग्रह से मुक्त, शरीर, वाणी एवं मन की प्रगल्भता से रहित, अनुद्धत - सारदो सरदुब्भूते अप्पगभे मतो तिसु. अभि. प. 984; सन्तिन्द्रियो च निपको च, अप्पगब्भो कुलेस्वननुगिद्धो, सु. नि. 144; खु. पा. 9.2; अप्पगब्भोति कायपागभियादिविरहितो, सु. नि. अट्ठ. 2.241; अप्पगब्भो अजेगुच्छोति, पागभियन्ति तीणि पागभियानि-कायिकं पागभियं वाचसिकं पागभियं चेतसिकं पागभियं महानि. 165. अप्पगुण/अपगुण त्रि., 1. पगुण का निषे. [अप्रगुण], शा. अ. प्रकृष्ट या उत्तम गुणों से रहित, ला. अ. असरल, वक्र, अकुशल, अविशारद - तत्थपरित्तं परित्तारम्मणन्तिआदीस यं अप्पगुणं होति, ध. स. अट्ठ. 229; 2. अप्प + गुण से व्यु.. ब. स. [अल्पगुण], गुणहीन, बहुत कम गुणों से युक्त, अमहत्वपूर्ण, तुच्छ - गुणवन्तेसु मनुस्सादीसु अप्पगुणे पाणे अप्पसावज्जो, महागुणे महासावज्जो, दी. नि. अट्ठ. 1.65; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).206; ध. स. अट्ठ. 143; - ज्झान नपुं., कर्म. स. [अल्पगुणध्यान]. अनुपयुक्त रूप से किया गया ध्यान - सुख अपरिसोधितत्ता दुब्बलमेव समापत्तिं वळजित्वा अप्पगुणज्झाने ठितो कालं कत्वा परित्ताभेसु निब्बत्तति, म. नि. अट्ठ. (उप. प.) 3.147. अप्पग्घ त्रि., ब. स. [अल्पार्घ], कम मूल्य वाला, निचली कीमत वाला, - घो पु., प्र. वि., ए. व. - नवोपि पोत्थको दुब्बण्णो चेव होति दुक्खसम्फस्सो च अप्पग्घो च, मज्झिमोपि ...जिण्णोपि ... अप्पग्यो च. पु. प. 140; - घं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - वाकचीरस्मिहि द्वादस आनिसंसा-अप्पग्धं सुन्दरं कप्पियन्ति अयं ताव एको आनिसंसो, जा. अट्ठ.
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