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अनग्गिपक्किक
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अनज्झत्तिकभूत अनग्गिपक्किक पु., तापसों या मुनियों का वह वर्ग, जो अनच्छ त्रि., अच्छ का निषे, मलिन, कलुषित, गन्दा, अस्वच्छ - आग में पकाये बिना कच्चा भोजन खाता है - तत्थ अनच्छो कलु साविला, अभि. प. 669, द्रष्ट अच्छ, अट्ठविधा तापसा - सपुत्तभरिया ... अनग्गिपक्किकाति, सु. अनच्छरिय त्रि०, अच्छरिय का निषे., ब. स., [अनाश्चर्य], नि. अट्ट, 1.269.
1. शा. अ. वह, जो आश्चर्यजनक नहीं है अर्थात् पूरी तरह अनग्गी पु., अग्गी का निषे., ब. स., उन तापसों का एक से स्वाभाविक है - अनच्छरियं, भिक्खवे, मल्लिकाय ... वर्ग, जो आग में न पका कर कच्चा अन्न आदि खाते हैं कोसलरओ अग्गमहेसिभावाधिगमो, जा. अट्ठ. 3.360; ... - अग्गिपाकी अनग्गी च ..., अप. 1.15; एकच्चे अनग्गी इस्सरिये ठितस्स इत्थियो नाम होन्तियेव, अनच्छरियमेव अग्गीहि अपचित्वा आमकमेव खादन्ति ..., अप. अट्ठ. एतन्ति, जा. अठ्ठ. 3.59; 2. - यं अ., क्रि. वि., बिना किसी 1.227.
आश्चर्य के ही - ... अनच्छरियं ते जयसेनो राजकुमारो अनग्घ त्रि., अग्घ का निषे. [अनर्घ, अनर्घ्य], बहुमूल्य, पसीदेय्य, म. नि. 3.173; 3. 'अनच्छरिया ... अस्सुतपुब्बा', अमूल्य - मयं पुब्बे पथविञ्च रज्जञ्च अनग्घन्ति सचिनो जैसे अनेक स्थलों में कुछ विद्वानों ने 'अनच्छरिय' को अहुम्ह, जा. अट्ठ. 1.131; सो किर मन्तो, अनग्घो महारहो, 'अनाचरिय' अथवा अनाचरियक (स्वतःस्फूर्त, गुरुजनों से जा. अट्ठ. 1.246; - कारण नपुं., मूल्यवान न होने का अप्राप्त) का प्राचीन अपपाठ माना है, जब कि कुछ दूसरों कारण - अथ नं अनग्घकारणं पुच्छन्तो..., जा. अट्ठ. 4.60. ने इसे 'अच्छरा' (अक्षर संविधान) के साथ जोड़कर अनच्छरिया अनग्घिय त्रि., मूल्य न दिये जाने योग्य, बहुमूल्य, मोल-भाव का तात्पर्य अक्षर-विन्यास के प्रयास से मुक्त अर्थात् स्वतःस्फूर्त न करने योग्य - भिक्खुभावो ... लोके अतलियो अप्पमाणो अर्थ में लिया है. समन्तपासादिका में 'अनु अच्छरिया' तथा अनग्घियो, मि. प. 185, पाठा. अनग्घनिय.
सारस्थ. टी. में 'अनच्छरिया' का अर्थ 'वृद्धि को प्राप्त किया अनघ त्रि., ब. स. [अनघ], पापरहित, विशुद्ध, पुण्यात्मा - गया है - बुद्धिप्पत्ता अच्छरिया वा अनच्छरिया, सारत्थ. टी. कच्चि त्वं अनघो भिक्खु, कच्चि नन्दी न विज्जति, स. नि. 3.138; महाव. अट्ठ. 233; अपिस्सु भगवन्तं इमा अनच्छरिया 1(1).66, द्रष्ट. नीचे अनिघ.
गाथायो पटिभंसु ..., महाव. 5. अनङ्गण त्रि., अङ्गण का निषे. [अनङ्गण], दागरहित, कलङ्करहित, अनज्जतन त्रि., अज्जतन का निषे., तत्पु. [अनद्यतन]. निष्पाप, विशुद्ध - मग्गं विरजं अनङ्गणं, महाव. 385%; वह, जो आज से सम्बद्ध नहीं है, आज के दिन घटित न विगतरजमनङ्गणं विसुद्ध, सु. नि. 522; निद्धन्तमलो अनङ्गणो, होने वाला, व्याकरण के सन्दर्भ में, भूत. का एक प्रभेद - ध. प. 236, 238; अनङ्गणस्स पोसस्स, निच्चं सुचिगवेसिनो, अनज्जतने आ ऊ, ओ त्थ, अम्हा, त्थ त्थं से व्ह इंम्हसे, थेरगा. 652, 1000; समापत्तिसुखं अनङ्गणं, जा. अट्ठ. 1.451; मोग्ग. 6.5; - टि. क. व्या. 429, में इसको हीयत्तनी नाम एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे, पारा. 5. से तथा पाणिनीय व्याकरण में अनद्यतन (लङ् लकार) कहा अनङ्गण-सुत्त नपुं., म. नि. के मू. प. के पांचवें सुत्त का गया है. नाम, म. नि. 1.31-40.
अनज्जव पु., अज्जव का निषे., तत्पु., [अनार्जव, नपुं.]. अनङ्गभङ्ग पु., अनङ्ग अर्थात् मार पर विजय - अनङ्गभङ्ग । असारल्य, कुटिलता - यो अनज्जवो ... वङ्कता कुटिलता समचिन्तयत्थ, जिना. 52.
- अयं वुच्चति अनज्जवो, विभ. 415; अनज्जवोति अनङ्गव नपुं.. ऐसे सगे-सम्बन्धी अथवा छोटे या बड़े भाई, जो अनुजुताकारो, विभ. अट्ठ. 466; - ता स्त्री. भाव., अपने नहीं हैं अथवा अपने अङ्ग जैसे नहीं हैं, - अनङ्गवा हि [अनार्जवता], कुटिलता, वक्रता - यो अनज्जवो अनज्जवता ते बाला, जा. अट्ठ. 7.192, अनङ्गवा हि ते बालाति ...... विभ. 415; अनज्जवभावो अनज्जवता, विभ. अट्ठ. 4663B जेट्टकनिट्ठभातरो अङ्गसमानताय अङ्गन्ति वुत्ता, इमे पन द्रष्ट, अज्जव. दुस्सीला, तस्मा अङ्गसमाना न होन्ति, जा. अट्ठ. 7.1933; अनज्झत्तिकभूत त्रि., अज्झत्तिकभूत का निषे. [अनाध्यात्मिक पाठा. अनङ्गाव.
भूत], वह, जो अपने साथ जुड़ा हुआ नहीं है, आत्मीय अनङ्गुट्ट त्रि., अङ्गुट्ठ का निषे०, बिना पूछ का, पूछरहित - नहीं है, अपरिचित, पराया - चर पिरेति अपेहि असीसकं अनङ्गट्ठ, सिङ्गालो हरति रोहितं, जा. अट्ठ. 3.295, अम्हाकं परे, अनज्झत्तिकभूतेति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) द्रष्ट. अङ्गुट्ठ
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