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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्मावती की संस्थापना : ३१ ३.१३ गणपति नाग अन्तिम नाग राजा के नाम से भी इसके सम्बन्ध में कुछ अनुमान लगाया जा सकता है । गणपति, गजेन्द्र एवं गणपेन्द्र सभी गण भाव का बोध कराते हैं। इससे एक गणतन्त्र की भावना को प्रबल समर्थन मिलता है । यह गणराज्य की एक प्रवृत्ति का सूचक प्रतीत होता है। यह एक गणाध्यक्ष की भावना थी, जो नागों के विस्तृत प्रभाव को इंगित करने के साथ-साथ सभी घटकों को एकता के सूत्र में बांधे रखना चाहती थी। गणपति के सम्बन्ध में 'भावशतक' नामक पुस्तक की सूचना डॉ० जायसवाल ने अपनी पुस्तक 'अंधकारयुगीन भारत' में दी है। इससे गणपति नाग के स्वभाव पर प्रकाश पड़ता है । पुस्तक में गणपति को धाराधीश लिखा गया है । गणपति को अत्यन्त उग्र स्वभाव का बताया गया है । वह एक युद्धप्रिय और परिश्रमी योद्धा था, तथा अन्य नाग उससे भयभीत होते थे। यथा-नागराज समं (शतं) ग्रन्थं नागरान तन्वता __ अकारि गजवक्त्र श्री नागराजो गिरां गुरुः ।। तथा-पन्नगपतयः सर्वे वीक्षन्ते गणपति भीताः । (८०) । धाराधीशः (६२) यह हस्तलिखित-काव्य स्वयं गणिपति के शासनकाल में ही लिखा गया बताया जाता है, और स्वयं गणपति को समर्पित किया गया था। किन्तु इस ग्रन्थ में उस राजा का नाम गजवक्त्र श्री नागराजः दिया गया है। उसके वंश को टाक वंश बताया गया है। डॉ० जायसवाल ने गणपति नाग का शासनकाल सन् ३१० से ३४४ तक माना है । ३.१४ नाग साम्राज्य का पतन ___ गणपति नाग का शासन नागवंशों के लिए परम उत्कर्ष का शासन था। चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपनी सेना को सुदृढ़ बना लिया, और समस्त उत्तरी भारत को आतंकित कर दिया। गणपति नाग, नागसेन और अच्युत नन्दी कौशाम्बी के युद्ध में परास्त हो गये । इसी प्रकार नागदत्त, मत्तिल, रुद्रदेव, चन्द्रवर्मा और बलिवर्मा का राज्य भी समाप्त कर दिया गया। नाग-राज्य की सीमा में प्रवेश करके मालव, आमेर, काक, खर्परक तथा आर्यावर्त के अन्य गणराज्य यौधेय, अर्जुनापन, माद्रक तथा प्रार्जुन को अपने अधीन किया, तथा दक्षिणपथ के पहरेदार वाकाटक रुद्रसेन को भी परास्त कर अपने अधीन कर लिया । आर्यावर्त की विजय का यह कार्य ई० सन् ३५० तक सम्पन्न हो चुका था। गणपति नाग तथा अन्य राजाओं के अन्तिम दिनों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं । सम्भवतः युद्ध में मारे गये होंगे । वीरसेन जीवित बचा था । समुद्रगुप्त ने वीरसेन को अपने अधीन बना लिया, और वीरसेन को अपना करद राजा नियुक्त किया। किन्तु वीरसेन अब भी स्वतन्त्र होने के सपने देख रहा होगा, जिसका आभास समुद्रगुप्त को लग गया । १. कैटेलाग ऑव मिथिला मैनुस्क्रिप्ट्स, खण्ड २, पृष्ठ १०५ । For Private and Personal Use Only
SR No.020523
Book TitlePadmavati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Sharma
PublisherMadhyapradesh Hingi Granth Academy
Publication Year1971
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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