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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४६६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः- हे जिनश इसभवमें तथा परभवमें मैं आपके दोनों चरणोंकी सदा काल सेवाकरता रहूँ यही मुझे प्राप्ति होवे किंतु मैं इससे अधिक आपसे कुछभी नहीं मांगता ॥ ५ ॥ सर्वागमावगमतः खलु तत्त्वबोधो मोक्षाय वृत्तमपि सम्प्रति दुर्घटं नः । जाड्यात्तथा कुतनुतस्त्वयि भक्तिरेव देवास्ति सैव भवतु क्रमतस्तदर्थम् ॥ ६ ॥ अर्थः समस्तप्रकारके शास्त्रोंके ज्ञानसे निश्चयसे तत्वोंका ज्ञान होता है और उन्हीं शास्त्रोंसे मोक्षकेलिये सम्यक्चारित्रकी भी प्राप्ति होती है किंतु इस पंचमकालमें हमारेलिये वे दोनों मूर्खताकेकारण तथा दुर्गेधिमयशरीरके कारण अत्यंत दुर्घट हैं अर्थात् सहसा प्राप्त नहीं होसकते इसलिये मुझमें जो आपकी भक्ति है वही क्रमसे मोक्षकेलिये होवे ऐसी प्रार्थना है ॥ भावार्थः — यद्यपि मोक्षकेलिये तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति तथा सम्यक् चारित्र की प्राप्ति शास्त्रोंसे होसकती है किन्तु इसपंचमकालमें अज्ञानताकी अधिकतासे तथा असमर्थ और दुर्गंधमय शरीर के कारण न तो तत्त्वज्ञानही हमसरीखे मनुष्योंको होसकता है और न सम्यक् चारित्रही पलसकता है और मोक्षको चाहते ही हैं इसलिये हे जिनेन्द्र यह विनय पूर्वक प्रार्थना है कि जो मुझमें आपकी भक्ति मौजूद है वही मुझे मोक्षकेलिये होवे ॥६॥ हरति हरतु वृद्धं वार्धकं कायकान्ति दधति दधतु दूरं मंदतामिन्द्रियाणि । भवति भवतु दुःखं जायतां वा विनाशः परमिह जिननाथे भक्तिरेका ममास्तु ॥७॥ अर्थः—–वृद्धावस्था समस्तशरीरकी कांतिको नष्ट करती है सो करो तथा समस्तइन्द्रियां बहुतकालतक मंद होजाती हैं सो होवें और संसार में दुःख होता है सो भी हो, तथा विनाशभी हो किंतु जिनेन्द्र भगवान में जो मेरी भक्ति है वह सदा रहो ऐसी प्रार्थना है ॥ For Private And Personal ||४६६ ॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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