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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४६७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थः — वृद्धावस्थामें चाहे मेरे समस्तशरीरकी कांति नष्ट हो और मेरी समस्त इन्द्रियां भी शिथिल होवें तथा मुझै दुःखभी भोगना पड़े और मेरा मरणभी होजावे तोभी जो जिनेन्द्रभगवानमें मेरी भक्ति है वह सदा स्थिर रहे यह विनयसे प्रार्थना है ॥ ७ ॥ अस्तु त्र्यं मम सुदर्शनबोधवृत्तसंवंधि यांतु च समस्तदुरीहितानि । याचे न किञ्चिदपरं भगवन् भवन्तं नाप्राप्तमस्ति किमपीह यतत्रिलोक्याम् ॥ ८ ॥ अर्थः- हे प्रभो इस संसारमें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी जो त्रयी है वह मेरे होवे तथा मेरे समस्त पाप नष्ट होजावें बस यहीं मैं आपसे याचना करताहूं किंतु इससे भिन्न दूसरी वस्तु, मैं नहीं मांगता क्योंकि संसारमें इनसे भिन्न ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो मुझे प्राप्त न होगई हो ॥ भावार्थ: है जिनेश मैं इससंसारमें बड़ीसे बड़ी ऋद्धिका धारी देवभी होचुका तथा राजाभी होचुका और भी मैंने अनेक विभूतियां प्राप्त करलीं किंतु अभीतक मुझे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र की प्राप्ति नहीं हुई है और मेरे पापभी अभी नष्ट नहीं हुवे हैं इसलिये मैं यह आपसे याचना करताहूं कि मुझे इन तीनों की प्राप्ति होजावे तथा समस्तकर्म मेरे नष्ट होजावे और इनसे अधिक में आपसे कुछभी नहीं मांगता क्योंकि सम्यग्दर्शन आदिसे भिन्न बस्तुका मांगना विना प्रयोजनका है ॥ ८ ॥ वसंततिलका । धन्योऽस्मि पुण्यनिलयोस्मि निराकुलोऽस्मि शांतोस्मि नष्टविपदस्मि विदस्मि देव श्रीमज्जिनेन्द्र भवतोऽङ्घ्रियुगं शरण्यं प्राप्तोस्मि वेदहमतीन्द्रियसौख्यकारि ॥ ९ ॥ अर्थः- हे श्री जिनेन्द्र जो सुख अतीन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रियोंसे नहीं हो सकता है उससुखके करने For Private And Personal ॥४६७॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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